Saturday, May 23, 2009

23 साल पहले हुआ था मलियाना में पीएसी का तांडव

अख्तर सिद्दीकी
23 मई 1987 को मेरठ के मलियाना कांड हुए 23 साल हो गए हैं। एक पीढ़ी बुढ़ापे में कदम रख चुकी है तो एक पीढ़ी जवान हो गयी है। लेकिन मलियाना के लोग आज भी उस दिन का टेरर भूले नहीं है। और न ही पीड़ितों को अब तक न्याय और उचित मुआवजा मिल सका है। 23 मई 1987 की सुबह बहुत अजीब और बैचेनी भरी थी। रमजान की 25वीं तारीख थी। दिल कह रहा था कि आज सब कुछ ठीक नहीं रहेगा। तभी लगभग सात बजे मलियाना में एक खबर आयी कि आज मलियाना में घर-घर तलाशी होगी और गिरफ्तारियां होंगी। वो भी सिर्फ मुस्लिम इलाके की। कोई भी इसकी वजह नहीं समझ पा रहा था। भले ही 18/19 की रात से पूरे मेरठ में भयानाक दंगा भड़का हुआ था, लेकिन मलियाना शांत था और यहां पर कफ्ूर्य भी नहीं लगाया गया था। यहां कभी हिन्दू-मुस्लिम दंगा तो दूर तनाव तक नहीं हुआ था। हिन्दू और मुसलमान साथ-साथ सुख चैन से रहते आ रहे थे। तलाशियों और गिरफ्तारियों की बात से नौजवानो में कुछ ज्यादा ही बैचेनी थी। इसी बैचेनी में बारह बज गए। इसी बीच मैंने अपने घर की छत से देखा कि मलियाना से जुड़ी संजय कालोनी में गहमागहमी हो रही है। ध्यान से देखा तो एक देसी शराब के ठेके से शराब लूटी जा रही थी। पुलिस और पीएसी शराब लुटेरों का साथ दे रही थी। और बहुत से लोगों ने यह नजारा देखा तो माहौल में दहशत तारी हो गयी। कुछ लोगों ने यह कहकर तसल्ली दी कि शायद कुछ लोगों को शराब की तलब बर्दाश्त नहीं हो रही होगी, इसलिए शराब को लूटा जा रहा है। यह सब चल ही रहा था कि पुलिस और पीएसी ने मलियाना की मुस्लिम आबादी को चारों ओर से घेरना शुरु कर दिया। घेरेबंदी कुछ इस तरह की जा रही थी मानो दुश्मन देश के सैनिकों पर हमला करने के लिए उनके अड्डों को घेर रही हो। यह देखकर, जिसे जहां जगह मिली जाकर छुप गया। इसी बीच ज+ौहर की अजान हुई और बहुत सारे लोग हिम्मत करके नमाज अदा करने मस्जिद में चले गए। नमाज अभी हो ही रही थी कि पुलिस और पीएसी ने घरों के दरवाजों पर दस्तक देनी शुरु कर दी। दरवाजा नहीं खुलने पर उन्हें तोड़ दिया गया। घरों में लूट और मारपीट शुरु कर दी नौजवानों को पकड़कर एक खाली पड़े प्लाट में लाकर बुरी तरह से मारा-पीटा गया। उन्हीं नौजवानों में मौहम्म्द याकूब थी था, जो इस कांड का मुख्य गवाह है। तभी पूरा मलियाना गोलियों की तड़तड़ाहट से गूंज गया। गोलियां चलने की आवाज जैसे एक सिगनल था। दंगाइयों, जिनमें विहिप और बजरंग दल जैसे साम्प्रदायिक दलों के कार्यकर्ता अधिक थे, ने मुसलमानों के घरों को लूटना और जलाना शुरु कर दिया। तेजधार हथियारों से औरतों और बच्चों पर हमले हुए। पुलिस और पीएसी ने उन दंगाईयों की ओर से मुंह फेर लिया। शराब का ठेका लूटने का रहस्य भी पता चला। दंगाई नशे में घुत थे। यह सब दोपहर ढाई बजे से शाम पांच बजे तक चलता रहा। पांच बजे के बाद कुछ लोग बदहवासी के आलम में सड़कों पर निकल आए। कुछ लोगों की हालत तो पागलों जैसी हो रही थी। वह अपने जुनूं में कुछ का कुछ बोल रहे थे। कुछ की ये हालत दहशत की वजह से थी, तो कुछ ने अपने सामने ही अपने को मरते या गम्भीर से रुप से घायल होते देखा था, इसलिए उनकी हालत पागलों जैसी हो गयी थी। जो लोग घरों में दुबके पड़े हुऐ थे, उन्हें लग रहा था कि शायद वे ही जिंदा हैं, बाकी सब को मार दिया गया है। शोर शराबा सुनकर मलियाना के सभी लोग सड़कों पर निकल आए। बहुत लोग कराह रहे थ। कुछ गम्भीर घायल थे, जिन्हें सहारा देकर लाया जा रहा था। सड़कों पर हूजूम देखकर पुलिस और पीएसी ने गोलियां चलाना बंद कर दिया। इसी बीच एक युवक ने एक पीएसी वाले को कुछ बोल दिया। पीएसी के जवान ने निशाना साधकर युवक पर फायर झोंक दिया। गोली युवक के तो नहीं लगी, लेकिन उसके साथ चल रही शाहजहां नाम की एक बारह साल की बच्ची की आंख में जा लगी। यह देखकर पीएसी के जवान को भी शायद आत्मग्लानि हुई और वह सिर झुकाकर चुपचाप एक गली में चला गया।
अब तक मलियाना के सभी मुसलमान, जिनमें बच्चे और औरतें भी शामिल थीं, मलियाना से बाहर जाने वाले रास्ते पर इकट्ठा हो चुके थे। वहीं पर मेरठ के आला पुलिस अफसर खड़े थे। शायद जायजा ले रहे थे कि ‘ऑप्रेशन मुस्लिम मर्डर’ ठीक से मुक्कमल हुआ या नहीं। घायलों की तरफ उनकी तवज्जो बिल्कुल नहीं थी। इसी बीच आला पुलिस अफसरों की पीठ पीछे कुछ दंगाई एक घर में आग लगा रहे थे। एक अफसर का ध्यान उस ओर दिलाया गया तो वह मुस्करा बोला-‘तुम लोग इमरान खाने के छक्कों पर बहुत तालियां बजाते हो, ये इसका इनाम है।‘ बाद में पता चला कि उस घर में पति-पत्नि सहित 6 लोग जिन्दा जलकर मर गए। जब उनकी लाशें बाहर निकाली गयीं तो मां-बाप ने अपने वारों बच्चों को अपने सीने से चिपकाया हुआ था। इस बीच रोजा खोलने का वक्त हो चुका था। लेकिन रोजा खोलने के लिए कुछ खाने को तो दूर पानी भी मयस्सर नहीं था। जब पुलिस अफसरो से पानी की मांग की गयी तो उन्होंने यह कहकर मांग ठुकरा दी कि आप सब अपने-अपने घरों में जाकर रोजा खोलें। लेकिन दशहत की वजह से कोई भी अपने घर जाने को तैयार नहीं हुआ। रात के बारह बज गए। अब तक किसी भी प्रकार की राहत का दूर-दूर तक पता नहीं था। मीडिया को मलियाना में आने नहीं दिया जा रहा था। किसी प्रकार बीबीसी का एक नुमाइन्दा जसविन्दर सिंह छुपते-छुपाते मलियाना पहुंचा। उसके साथ अमर उजाला का फोटोग्राफर मुन्ना भी था। जसिवन्दर ने पूरी जानकारी ली। पता नहीं कैसे पुलिस और पीएसी को दोनों पत्रकारों की उपस्थिति का इल्म हो गया। पीएसी से फोटोग्राफर का कैमरा छीनकर उसकी रील नष्ट कर दी। दोनों पत्रकारों को फौरन मलियाना छोड़कर जाने का आदेश दिया। सुबह होते-होते मलियाना को फौज के हवाले कर दिया गया। फौज के सहयोग से हम लोगों ने लाशों की तलाश का काम शुरु हुआ, जो कई दिन तक चलता रहा। हौली चौक पर सत्तार के परिवार के 11 सदस्यों के शव उसके घर के बाहर स्थित एक कुए से बरामद किए गए। कुल 73 लोग मारे गए थे। मारे गए लोगों में केवल 36 लोगों की शिनाख्त हो सकी। बाकी लोगों को प्रशासन अभी भी लापता मानता है। हालांकि उनके वारिसान को यह कहकर 20-20 हजार का मुआवजा दिया गया था कि यदि ये लोग लौट कर आ गए तो मुआवजा राशि वापस ले ली जाएगी। ये अलग बात है कि आज तक कोई ‘लापता’ वापस नहीं लौटा है। शासन प्रशासन ने इस कांड को हिन्दू-मुस्लिम दंगा प्रचारित किया था। लेकिन यहां पर किसी एक गैरमुस्लिम को खरोंच तक नहीं आयी थी।
कत्लेआम के बाद मलियाना नेताओं का ÷तीर्थस्थ्ल÷ हो गया था। शायद ही कोई ऐसा नेता बचा हो, जो मलियाना न आया है। भाजपा के लालकृष्ण आडवाणी ने भी मलियाना का दौरा करके कहा था कि मलियाना में पुलिस और पीएसी ने ज्यादती की है। विपक्ष और मीडिया के तीखे तेचरों के चलते चलते इस कांड की एक सदस्यीय जांच आयोग से जांच कराने का ऐलान किया गया था। आयोग के अध्यक्ष जीएल श्रीवास्तव ने एक साल में ही जांच पूरी करके सरकार को रिपोर्ट सौंप दी थी। लेकिन इस रिपोर्ट का हश्र भी ऐसा ही हुआ, जैसा कि अन्य आयोगों की रिपोर्टां का अब तक होता आया है। मुसलमानों का हितैषी होने का दम भरने वाले मुलायम सिंह हों, मायावाती हों या आजम खान हों, किसी ने भी अपने शासनकाल में रिपोर्ट को सार्वजनिक करके दोषियों को सजा दिलाने की कोशिश नहीं की। हां इतना जरुर हुआ कि समय-समय पर मलियाना कांड का जिक्र करके राजनैतिक लाभ जरुर उठाया गया। कहा जाता है कि जांच आयोग की रिपोर्ट में पुलिस और पीएसी को दोषी ठहराया गया है। अफसोस इस बात का है कि मलियाना कांड में मुख्य भूमिका निभाने वाले पुलिस और पीएसी के अधिकारी इज्जत के साथ न केवल नौकरी पर कायम रहें, बल्कि तरक्की भी करते रहे। उस समय दोषी पुलिस और पीएसी अधिकारियों को सस्पेंड करना तो दूर उनका तबादला तक भी नहीं किया गया था। ये अधिकारी एक लम्बे अरसे तक मलियाना कांड के पीड़ीतों की मदद करने वालों को धमकाते रहे। पुलिस ने इन पंक्तियों के लेखक को भी उस समय मीडिया से दूर रहने के लिए कहा था, क्योंकि उस समय दुनिया भर के मीडिया में मेरे माध्यम से खबरें आ रहीं थीं। ऐसा नहीं करने पर रासुका में बन्द करने की धमकी दी थी।
23 बरस बाद यह कांड 15 अक्टूबर 2008 को तब फिर सुर्खियों में आया, जब इस कांड के फरार चल रहे 21 आरोपी फास्टट्रेक कोर्ट में हाजिरी देने गये। अदालत ने इन आरोपियों समेत 93 लोगों के गैर जमानती वारंट जारी कर रखे थे। कुछ आरोपी तो न केवल स्थानीय पुलिस की नाक के नीचे रह रहे थे, बल्कि कारोबार भी कर रहे थे। इस अति चर्चित कांड की सुनवाई यूं तो फास्ट ट्रेक अदालत में चल रही है, लेकिन अभी भी उसकी चाल बेहद सुस्त है। आरोपियों के वकील कार्यवाही को बाधित करने का हर संभव हथकंडा अपना रहे हैं। फास्ट ट्रेक अदालतों का गठन ही इसलिए किया गया था ताकि मलियाना जैसे जघन्य मामलों की सुनवाई जल्दी से जल्दी हो सके। लेकिन लगता नहीं कि जल्दी इंसाफ मिल पाएगा। इस लड़ाई में मलियाना के मुसलमान अकेले हैं। उन्हें केस लड़ने के लिए कहीं से भी किसी प्रकार की मदद नहीं मिल रही है। मुख्य गवाहों को धमकाया जा रहा है। बयान बदलने के लिए पैसों का लालच दिया जा रहा है। ऐसे में इस केस का क्या हश्र होगा अल्लाह ही जानता है। क्या वे नेता जिन्होंने मलियाना कांड पर अपनी राजनैतिक रोटियां सेंकी हैं, मलियाना कांड केस को लड़वाने में किसी प्रकार की मदद करेंगे ? आज तक किसी भी नेता ने यह कोशिश भी नहीं की कि मलियाना के पीडितों को भी 1984 के सिख विराधी दंगों की तरह आर्थिक पैकेज मिले। हाशिमपुरा कांड के पीड़ितों को सरकार 5-5 लाख रुपए का मुआवजा दे चुकी है।
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Monday, May 18, 2009

देश ने नफरत की राजनीति को नकारा

सलीम अख्तर सिद्दीकी

जनसंघ से बनी भारतीय जनता पार्टी 1984 के लोकसभा में चुनाव केवल दो सीटें जीतकर लगभग मर ही चुकी थी। लेकिन फरवरी 1986 में बाबरी मस्जिद पर लगा ताला खुलने पर आखिरी सांसें गिन रही भाजपा को जैसे ’संजीवनी’ मिल गयी थी। संघ परिवार ने गली-गली रामसेवकों की फौजें तैयार करके नफरत और घृणा का ऐसा माहौल तैयार किया था कि हिन्दुस्तान का धर्मनिरपेक्ष ढांचा चरमरा कर रह गया। पूरा देश साम्प्रदायिक दंगों की आग में झुलस गया था। चुनाव दर चुनाव भाजपा की सीटें बढ़ती रहीं। 1998 के चुनाव में भाजपा की सीटें 188 हो गयीं। भाजपा ने फिर से केन्द्र में सरकार बनायी, जो केवल 13 महीने ही चल सकी। लेकिन 1999 के मध्यावधि चुनाव में भाजपा की सीटें नहीं बढ़ सकीं। वह 188 पर ही टिकी रही। तमामतर कोशिशों के बाद भी पूर्ण बहुमत पाने का भाजपा का सपना पूरा नहीं हो सका। 1999 में भाजपा ने राममंदिर, धारा 370 और समान सिविल कोड जैसे मुद्दों को सत्ता की खातिर कूड़े दान में डाल कर यह दिखा दिया कि वह अब सत्ता से ज्यादा दिन दूर नहीं रह सकती। इसमें कोई शक नहीं कि भाजपा को 2 से 188 सीटों तक लाने का श्रेय आडवाणी को ही जाता है। लेकिन प्रधानमंत्री बनने में उनकी कट्टर छवि उनकी दुश्मन बन गयी। लेकिन भाजपा के पास अटल बिहारी वाजपेयी के रुप में एक ’मुखौटा’ मौजूद था। इसी मुखौटे को आगे करके बार-बार के चुनावों से आजिज आ चुके छोट-बड़े राजनैतिक दलों का समर्थन लेकर गठबंधन सरकार बनायी। भले ही भाजपा ने तीनों मुद्दों को छोड़ दिया हो, लेकिन संघ परिवार ने पर्दे के पीछे से अपना साम्प्रदायिक एजेंडा चलाए रखा। फरवरी 2002 में नरेन्द्र मोदी ने गुजरात में जो कुछ किया, वह उसी एजेंडे का हिस्सा था। नरेन्द्र मोदी ’हिन्दू सम्राट’ हो गए।2004 के चुनाव में एक बार फिर भाजपा ने साम्प्रदायिक कार्ड खेला, जो नहीं चल सका था। हालांकि तब कहा गया था कि भाजपा नरेन्द्र मोदी की वजह से हारी है, लेकिन भाजपा ने वरुण को भी दूसरा नरेन्द्र मोदी बनाने की कोषिष की भाजपा ने 2004 की हार से सबक नहीं लेते हुए एक बार फिर साम्प्रदायिक कार्ड खेलकर सत्ता पर काबिज होना चाहा। नरेन्द्र मोदी को स्टार प्रचारक बता कर उन्हें पूरे देष में घुमाया गया। वरुण को भी हिन्ुत्व का नया पुरोघा मान लिया गया। लेकिन देष की जनता कुछ और ही सोचे बैठी थी। देष की जनता ने राजग सरकार में देख लिया था कि ‘मजबूत नेता, निर्णायक सरकार’ का नारा लगाने वाले न तो ‘मजबूत’ हैं और न ही ‘निर्णायक‘। चुनाव हारते ही अपने को मजबूत बताने वाले आडवाणी विपक्ष के नेता बनने से गुरेज कर रहे हंै। यानि उस जिम्मेदारी से भाग रहे हैं, जिसकी भाजपा को सबसे ज्यादा जरुरत है। ये ठीक है कि अब आडवाणी प्रधानमंत्री शायद ही बन सकें, लेकिन क्या भाजपा को मजबूती देना उनकी जिम्मेदारी नहीं है। कांगेस के युवा चेहरे राहुल गांधी ने शालीन तरीके से चुनाव प्रचार करके देष की जनता को बताया कि देष राम नाम से नहीं विकास से दुनिया की ताकत बनेगा। भाजपा को गलतफहमी हो गयी थी कि देष की जनता का धर्म के नाम पर ध्रवीकरण किया जा सकता है। लेकिन ये इक्सवीं सदी है। 1992 और 2009 में जमीन आसमान का फर्क आ गया है। जनता ने देख लिया था कि धर्म के नाम पर राजनैतिक रोटियां सेंकने के अलावा कुछ नहीं किया जाता। इस वुनाव ने भाजपा को सबक दिया है कि अब धर्म के नाम पर जनता को बेवकूफ नहीं बनाया जा सकता है। आम जनता को रोटी, कपड़ा और मकान पहले चाहिए, राम मंदिर या राम सेतु नहीं। इस चुनाव के जरिए देष की जनता ने उन राजनैतिक दलों को भी आईना दिखाया है, जो पांच-दस सीटें लेकर प्रधानमंत्री बनने का सपना देख रहे थे। बसपा सुप्रीमो को भी दलितों ने एहसास करा दिया है वे केवल उन्हें सत्ता तक पहुंचाने की सीढ़ी नहीं बनेेंगे। मुलायम सिंह यादव, लालू प्रसाद यादव और रामविलास पासवान को भी मुसलमानों ने बता दिया है कि अब भाजपा का भय दिखाकर उनका इस्तेमाल नहीं किया जा सकता है। देष की जनता ने बाहुबलियों को बाहर का रास्ता दिखा कर हिम्मत का काम किया है। वाम दलो को भी पता चल गया होगा कि समाजवाद का नारा लगाकर गरीब किसानों की बेषकीमती जमीनों को पूंजीपतियों को सौंपने का क्या अन्जाम होता है। नन्दी ग्राम और सिंगूर का खून रंग लाया है। लेकिन यह चुनाव यह भी बताता है कि अब एक आम आदमी लोकसभा में जाने का ख्वाब न पाले। क्योंकि इस बार संसद में पहुंचने वाले ज्यादतर सांसद करोड़पति या अरबपति हैं। एक बात और। सचिन पायलट, ज्योतिरादत्य सिंधिया, जयन्त चैधरी, अखिलेष यादव, वरुण और प्रिया दत्त आदि जैसे युवाओं को दिखाकर यह प्रचारित किया जा रहा है कि अब युवा आगे आ रहा है। सवाल यह है कि इन लोगों का अपना क्या है। ये युवा कितने जमीन से जुड़े हैं। इनको उस वर्ग की दुख-तकलीफों का कितना ज्ञान है, जिन्होंने इनको चुन कर भेजा है। क्या इनकी महज इतनी काबिलियत नहीं है कि ये राजनेताओं के चश्म ओ चिराग है। क्या इस बात की जरुरत नहीं है कि राजनैतिक पार्टियां ऐसे युवाओं को टिकट देकर अपने खर्च पर चुनाव लड़वाकर संसद में भेजें जो आम आदमी की तकलीफों को समझकर उनको दूर करे।
170, मलियाना, मेरठ।

देश ने नफरत की राजनीति को नकारा


सलीम अख्तर सिद्दीकी


जनसंघ से बनी भारतीय जनता पार्टी 1984 के लोकसभा में चुनाव केवल दो सीटें जीतकर लगभग मर ही चुकी थी। लेकिन फरवरी 1986 में बाबरी मस्जिद पर लगा ताला खुलने पर आखिरी सांसें गिन रही भाजपा को जैसे ’संजीवनी’ मिल गयी थी। संघ परिवार ने गली-गली रामसेवकों की फौजें तैयार करके नफरत और घृणा का ऐसा माहौल तैयार किया था कि हिन्दुस्तान का धर्मनिरपेक्ष ढांचा चरमरा कर रह गया। पूरा देश साम्प्रदायिक दंगों की आग में झुलस गया था। चुनाव दर चुनाव भाजपा की सीटें बढ़ती रहीं। 1998 के चुनाव में भाजपा की सीटें 188 हो गयीं। भाजपा ने फिर से केन्द्र में सरकार बनायी, जो केवल 13 महीने ही चल सकी। लेकिन 1999 के मध्यावधि चुनाव में भाजपा की सीटें नहीं बढ़ सकीं। वह 188 पर ही टिकी रही। तमामतर कोशिशों के बाद भी पूर्ण बहुमत पाने का भाजपा का सपना पूरा नहीं हो सका। 1999 में भाजपा ने राममंदिर, धारा 370 और समान सिविल कोड जैसे मुद्दों को सत्ता की खातिर कूड़े दान में डाल कर यह दिखा दिया कि वह अब सत्ता से ज्यादा दिन दूर नहीं रह सकती। इसमें कोई शक नहीं कि भाजपा को 2 से 188 सीटों तक लाने का श्रेय आडवाणी को ही जाता है। लेकिन प्रधानमंत्री बनने में उनकी कट्टर छवि उनकी दुश्मन बन गयी। लेकिन भाजपा के पास अटल बिहारी वाजपेयी के रुप में एक ’मुखौटा’ मौजूद था। इसी मुखौटे को आगे करके बार-बार के चुनावों से आजिज आ चुके छोट-बड़े राजनैतिक दलों का समर्थन लेकर गठबंधन सरकार बनायी। भले ही भाजपा ने तीनों मुद्दों को छोड़ दिया हो, लेकिन संघ परिवार ने पर्दे के पीछे से अपना साम्प्रदायिक एजेंडा चलाए रखा। फरवरी 2002 में नरेन्द्र मोदी ने गुजरात में जो कुछ किया, वह उसी एजेंडे का हिस्सा था। नरेन्द्र मोदी ’हिन्दू सम्राट’ हो गए।2004 के चुनाव में एक बार फिर भाजपा ने साम्प्रदायिक कार्ड खेला, जो नहीं चल सका था। हालांकि तब कहा गया था कि भाजपा नरेन्द्र मोदी की वजह से हारी है, लेकिन भाजपा ने वरुण को भी दूसरा नरेन्द्र मोदी बनाने की कोषिष की भाजपा ने 2004 की हार से सबक नहीं लेते हुए एक बार फिर साम्प्रदायिक कार्ड खेलकर सत्ता पर काबिज होना चाहा। नरेन्द्र मोदी को स्टार प्रचारक बता कर उन्हें पूरे देष में घुमाया गया। वरुण को भी हिन्ुत्व का नया पुरोघा मान लिया गया। लेकिन देष की जनता कुछ और ही सोचे बैठी थी। देष की जनता ने राजग सरकार में देख लिया था कि ‘मजबूत नेता, निर्णायक सरकार’ का नारा लगाने वाले न तो ‘मजबूत’ हैं और न ही ‘निर्णायक‘। चुनाव हारते ही अपने को मजबूत बताने वाले आडवाणी विपक्ष के नेता बनने से गुरेज कर रहे हंै। यानि उस जिम्मेदारी से भाग रहे हैं, जिसकी भाजपा को सबसे ज्यादा जरुरत है। ये ठीक है कि अब आडवाणी प्रधानमंत्री शायद ही बन सकें, लेकिन क्या भाजपा को मजबूती देना उनकी जिम्मेदारी नहीं है। कांगेस के युवा चेहरे राहुल गांधी ने शालीन तरीके से चुनाव प्रचार करके देष की जनता को बताया कि देष राम नाम से नहीं विकास से दुनिया की ताकत बनेगा। भाजपा को गलतफहमी हो गयी थी कि देष की जनता का धर्म के नाम पर ध्रवीकरण किया जा सकता है। लेकिन ये इक्सवीं सदी है। 1992 और 2009 में जमीन आसमान का फर्क आ गया है। जनता ने देख लिया था कि धर्म के नाम पर राजनैतिक रोटियां सेंकने के अलावा कुछ नहीं किया जाता। इस वुनाव ने भाजपा को सबक दिया है कि अब धर्म के नाम पर जनता को बेवकूफ नहीं बनाया जा सकता है। आम जनता को रोटी, कपड़ा और मकान पहले चाहिए, राम मंदिर या राम सेतु नहीं। इस चुनाव के जरिए देष की जनता ने उन राजनैतिक दलों को भी आईना दिखाया है, जो पांच-दस सीटें लेकर प्रधानमंत्री बनने का सपना देख रहे थे। बसपा सुप्रीमो को भी दलितों ने एहसास करा दिया है वे केवल उन्हें सत्ता तक पहुंचाने की सीढ़ी नहीं बनेेंगे। मुलायम सिंह यादव, लालू प्रसाद यादव और रामविलास पासवान को भी मुसलमानों ने बता दिया है कि अब भाजपा का भय दिखाकर उनका इस्तेमाल नहीं किया जा सकता है। देष की जनता ने बाहुबलियों को बाहर का रास्ता दिखा कर हिम्मत का काम किया है। वाम दलो को भी पता चल गया होगा कि समाजवाद का नारा लगाकर गरीब किसानों की बेषकीमती जमीनों को पूंजीपतियों को सौंपने का क्या अन्जाम होता है। नन्दी ग्राम और सिंगूर का खून रंग लाया है। लेकिन यह चुनाव यह भी बताता है कि अब एक आम आदमी लोकसभा में जाने का ख्वाब न पाले। क्योंकि इस बार संसद में पहुंचने वाले ज्यादतर सांसद करोड़पति या अरबपति हैं। एक बात और। सचिन पायलट, ज्योतिरादत्य सिंधिया, जयन्त चैधरी, अखिलेष यादव, वरुण और प्रिया दत्त आदि जैसे युवाओं को दिखाकर यह प्रचारित किया जा रहा है कि अब युवा आगे आ रहा है। सवाल यह है कि इन लोगों का अपना क्या है। ये युवा कितने जमीन से जुड़े हैं। इनको उस वर्ग की दुख-तकलीफों का कितना ज्ञान है, जिन्होंने इनको चुन कर भेजा है। क्या इनकी महज इतनी काबिलियत नहीं है कि ये राजनेताओं के चश्म ओ चिराग है। क्या इस बात की जरुरत नहीं है कि राजनैतिक पार्टियां ऐसे युवाओं को टिकट देकर अपने खर्च पर चुनाव लड़वाकर संसद में भेजें जो आम आदमी की तकलीफों को समझकर उनको दूर करे।
170, मलियाना, मेरठ।

Wednesday, May 13, 2009

तालिबान ही इस्लाम का असली दुश्मन

सलीम अख्तर सिद्दीकी

इस बहस के कोई मायने नहीं रहे कि तालिबान को अमेरिका ने पाकिस्तान की मदद से अपने स्वार्थ की खातिर पाला-पोसा था। अब तल्ख हकीकत यह है कि तालिबान इस आधुनिक युग में मध्ययुगीन परम्पराएं थोप रहा है। आवाम पर जुल्म कर रहा है। वह पाकिस्तान के एक बड़े भाग पर पर इस्लाम के नाम पर गैरइस्लामी परम्पराओं को मुसल्लत कर रहा है। अभी पिछले दिनों दुनिया ने टीवी पर देखा कि कैसे स्वात में कुछ पुरुष एक लड़की के हाथ-पैर बांधकर उसके कथित गुनाह की सजा कोड़े मार कर दे रहे थे। हैरत की बात यह थी कि एक लड़की को पुरुष सजा दे रहे थे। इन तालिबानियों से पूछा जाना चाहिए कि पुरुषों द्वारा एक लड़की को सजा देना कौनसा इस्लाम है ? स्वात घाटी में शरीया लागू करने के बाद वहां की औरतों का जीना हराम कर दिया गया है। लड़कियों के स्कूल जाने पर पाबंद आयद कर दी गयी है। इस्लाम तालीम हासिल करने के लिए चीन तक जाने की नसीहत देता है। लेकिन तालिबान की नजर में आधुनिक तालीम गुनाह है। वह कहता है कि सिर्फ दीनी तालीम हासिल करो। पाकिस्तान सरकार ने यह सोचकर स्वात में शरीया लागू करने की इजाजत दी थी कि वहां शांति हो जाएगी। लेकिन यह सोचना उसकी भारी भूल थी। तालिबान की मनमानी बढ़ती जा रही है। तालिबान का स्वात घाटी के सिखों पर जजिया कर लगाना इसी मनामनी का हिस्सा है। तालिबान ने सिखों को पांच करोड़ रुपया जजिया टैक्स देने के आदेश दिए थे। मोल भाव के आद यह राशि दो करोड़ कर दी गयी थी। लेकिन सिख तय तारीख पर दो करोड़ रुपये नहीं दे पाए तो उनके घरों को तोड़ दिया गया। दुकानों में आग लगा दी गयी। विभिन्न धर्म के मानने वाले लोग विभिन्न देशों में बगैर किसी रोक-टोक के लोकतान्त्रिक तरीके से अपना जीवन-यापन कर रहे हैं। किसी भी देश में ऐसा नहीं है कि वहां किसी खास धर्म के मानने वाले लोगों को रहने के लिए किसी प्रकार का टैक्स अदा करना पड़ रहा हो। दुनिया में लगभग 57 इस्लामी या मुस्लिम देश हैं। इनमें से भी किसी देश में गैर मुस्लिमों से जजिया टैक्स नहीं वसूला जाता है। तालिबान की हरकतों की वजह से दुनिया भर में इस्लाम की गलत छवि बन रही है। पश्चिम के कुछ देश इस्लाम पर तोहमतें लगाते रहे हैं। कभी-कभी तो लगता है कि तालिबान ही इस्लाम दुश्मनों के हाथ का खिलौना बन गया है। तालिबान के कथित इस्लामी राज्य से लोगों का पलायन इस बात का सबूत है कि स्वयं मुसलमान भी तालिबान के इस्लामी राज्य मंजूर नहीं है। तालिबान से बचाने के लिए स्वात घाटी के लोग तालिबान के खिलाफ प्रदर्शन कर रहे हैं।अब जब तालिबान पाकिस्तान को निगल जाने के लिए बेताब है तो आसिफ अली जरदारी कह रहे हैं कि पाकिस्तान को भारत से नहीं तालिबान से खतरा है। सवाल यह है कि पाकिस्तान को तालिबान से कौन बचाएगा ? अमेरिका अफगानिस्तान और इराक में इस कदर घिरा हुआ है कि वह चाहकर भी पाकिस्तान में तालिबानियों के खिलाफ सीधी कार्यवाही नहीं कर सकता। पाकिस्तान की आवाम भले ही तालिबान विरोधी हो, लेकिन वह यह बिल्कुल बर्दाश्त नहीं करेगा कि पाकिस्तान में अमेरिका सीधे हस्तक्षेप करे। वैसे भी अफगानिस्तान में अमेरिका तालिबान का खात्मा करने में असफल हो चुका है। तमाम कोशिशों के बाद भी ओसामा बिन लादेन पहेली बना हुआ है। पड़ोस में कट्टरपंथियों का बढ़ता प्रभुत्व भारत के हित में भी नहीं है, लेकिन भारत इस स्थिति में भी नहीं है कि वह सीधे-सीधे पाकिस्तान पर हमला करके तालिबान का खात्मा कर सके। भारत की ऐसी कोई भी कोशिश पूरे दक्षिण एशिया को सुलगा सकती है। यह भी सच है कि पाकिस्तान के परणाणु बमों तक तालिबान तक हो जाती है तो सबसे ज्यादा खतरा भारत को ही है। परमाणु बमों की सबसे ज्यादा चिंता अमेरिका को है। तभी तो अमेरिका पाकिस्तान पर तालिबान को नेस्तानाबूद करने के लिए दबाव बना रहा है। इसके लिए वह पाकिस्तान पर डालर बरसा रहा है। लेकिन पाकिस्तान डालर लेने के बाद भी लगता है तालिबान के खिलाफ केवल लड़ता हुआ दिख भर रहा है, सही मायनों में लड़ नहीं रहा है।

पाकिस्तान जानता है कि तालिबान केवल पाकिस्तान की समस्या नहीं है, पाकिस्तान को गले लगाए रखना अमेरिका की मजबूरी है। पाकिस्तान यह भी समझता है कि यदि पाकिस्तान के पास परमाणु बम नहीं होते तो तालिबान पूरे पाकिस्तान पर कब्जा करके भी शरियत लागू कर देता तो भी अमेरिका पर कोई फर्क नहीं पड़ने वाला था। अब स्थिति यह है कि अमेरिका के पास तालिबान से निपटने के लिए पाकिस्तान ही एकमात्र मोहरा है, जो नाकारा और कमजोर है। ऐसे में तालिबान के बढ़ते कदमों को कैसे रोका जाए, यह यक्ष प्रश्न अमेरिका सहित सभी पश्चिमी देशों को परेशान कर रहा है। बकौल जरदारी, तालिबान सीआईए और आईएसआई की संतान है। इसमें दो राय नहीं कि दोनों की तालिबान रुपी संतान बिगड़ चुकी है, जो अपने ही जन्मदाता को नेस्तानाबूद करने पर आमादा है।

Friday, May 1, 2009

मुसलमानों का एहसान माने भाजपा

सलीम अख्तर सिद्दीकी
1984 के लोकसभा में चुनाव भाजपा केवल दो सीटें जीतकर मर चुकी थी। केवल अन्तिम संस्कार शेष था। लेकिन राजीव गांधी की अपरिपक्व मंडली ने हिन्दुओं को खुश करने के लिए फरवरी 1986 में बाबरी मस्जिद पर लगे ताले को खुलवाकर बोतल में बंद जिन्न को बाहर निकाल दिया। ताला खुलने के बाद आखिरी सांसें गिन रही भाजपा को जैसे 'संजीवनी' मिल गयी। लालकृष्ण आडवाणी सहित कल्याण सिंह, साध्वी रितम्भरा, उमा भारती, अशोक सिंहल, विनय कटियार, प्रवीण तोगड़िया और न जाने कितने लोगों ने राम मंदिर को ही अपना एकमात्र मुद्दा बना लिया। गली-गली रामसेवकों की फौजें तैयार हो गयीं। नफरत,घृणा और कत्लोगारद का ऐसा माहौल तैयार किया गया कि हिन्दुस्तान का धर्मनिरपेक्ष ढांचा चरमरा कर रह गया। पूरा प्रदेश साम्प्रदायिक दंगों की आग में झुलसने लगा। नतीजा, 1989 के चुनाव में भाजपा की सीटें दो से बढ़कर 88 हो गयीं। भाजपा ने विश्वनाथ प्रताप सिंह की जनता दल की सरकार को बाहर से समर्थन दिया। राम मंदिर आंदोलन अपनी गति से चलता रहा। बेकसूर हिन्दू और मुसलमानों का खून पीता रहा। भाजपा रुपी 'ड्राक्यूला' पनपता रहा। विश्वनाथ प्रताप सिंह ने मंडल आयोग की सिफारिशों को लागू कर दिया। इससे भाजपा बौखला गयी। आडवाणी रथ पर सवार होकर रामरथ लेकर यात्रा पर निकल पड़े। उनका रथ जहां-जहां से गुजरा वहां दहशत और नफरत फैलती चली गयी। आखिरकार भारी खून-खराबे के बाद बिहार के तत्कालीन मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव ने समस्तीपुर में आडवाणी को गिफ्तार किया। राम रथ के घोड़े की लगाम को खींचकर उसे आगे बढ़ने से रोका। भाजपा ने विरोधस्वरुप जनता दल सरकार से समर्थन वापस ले लिया। नतीजे में 1991 में मध्यावधि चुनाव हुए। उत्तर प्रदेश में पहली बार भाजपा की सरकार बनी। केन्द्र में कांग्रेस की सरकार बनी लेकिन भाजपा की 88 से बढ़कर 120 सीटें हो गयी। भाजपा ने अपनी ताकत बढ़ती देखकर राममंदिर आंदोलन को और ज्यादा तेज कर दिया। आखिरकार वो दिन भी आया, जब रामसेवकों ने पूरे संघ परिवार के संरक्षण में बाबरी मस्जिद को तोड़ दिया।
1996 के लोकसभा चुनाव में भाजपा की ताकत बढ़कर 182 हो गयी। भाजपा ने अटल बिहारी के नेतृत्व में सरकार बनाने का दावा पेश किया लेकिन वाजपेयी संसद में बहुमत नहीं जुटा सके लिहाजा मात्र 13 दिन में उन्हें इस्तीफा देना पड़ा। 1998 में देश ने फिर से मध्यावधि चुनाव का दंश झेला। भाजपा की सीटें 188 हो गयीं। भाजपा ने फिर से केन्द्र में सरकार बनायी, जो केवल 13 महीने ही चल सकी। एक बार फिर देश पर मध्यावध्चिुनाव का भार पड़ा। 1999 के लोकसभा चुनाव में भाजपा की सीटें नहीं बढ़ सकीं। वह 188 पर ही टिकी रही। तमामतर कोशिशों के बाद भी पूर्ण बहुमत पाने का भाजपा का सपना पूरा नहीं हो सका। 1999 में भाजपा ने राममंदिर, धारा 370 और समान सिविल कोड जैसे मुद्दों को सत्ता की खातिर कूड़े दान में डाल कर यह दिखा दिया कि वह अब सत्ता से ज्यादा दिन दूर नहीं रह सकती। इसमें कोई शक नहीं कि भाजपा को 2 से 188 सीटों तक लाने का श्रेय आडवाणी को ही जाता है। लेकिन प्रधानमंत्री बनने में उनकी कट्टर छवि उनकी दुश्मन बन गयी। लेकिन भाजपा के पास अटल बिहारी वाजपेयी के रुप में एक 'मुखौटा' मौजूद था। इसी मुखौटे को आगे करके बार-बार के चुनावों से आजिज आ चुके छोटे-बड़े राजनैतिक दलों का समर्थन लेकर गठबंधन सरकार बनायी। भले ही भाजपा ने तीनों मुद्दों को छोड़ दिया हो, लेकिन संघ परिवार ने पर्दे के पीछे से अपना साम्प्रदायिक एजेंडा चलाए रखा।
फरवरी 2002 में नरेन्द्र मोदी ने गुजरात में जो कुछ किया, वह उसी एजेंडे का हिस्सा था। नरेन्द्र मोदी 'हिन्दू सम्राट' हो गए। अब उन्हें 2014 का 'पीएम इन वेटिंग' बताया जाने लगा है। यह संघ परिवार का नया पैंतरा है। वह क्या संदेश देना चाहता है, इसे समझना मुश्किल नहीं है। संघ परिवार को अब वरुण में दूसरे नरेन्द्र मोदी भी दिखायी देने लगे हैं। भाजपा में जो शख्स दूसरे समुदायों के बारे में जितनी अधिक नफरत भरी बातें करता है, भाजपा में उसका कद उतना ही उंचा हो जाता है। उसे चुनावों में 'स्टार प्रचारक' का दर्जा हासिल हो जाता है। वरुण ने पीलीभीत की एक सभा में मुसलमानों के हाथ काटने की बात की तो नरेन्द्र मोदी के बाद अब वरुण भी भाजपा के स्टार प्रचारक हो गए। लेकिन जनता यह देख चुकी है कि वरुण कितने कमजोर दिल के इंसान हैं। माफी मांग कर जेल से बाहर आए हैं। संघ परिवार में माफी मांगने की परम्परा रही है। अटल बिहारी वाजपेयी ब्रिटिश हुकूमत से माफी मांग कर रिहाई ले चुके हैं। भाजपा के लिए 90 का दशक स्वर्णिम काल कहा जा सकता है। उस स्वर्णिम काल में भाजपा 188 सीटों से आगे नहीं बढ़ सकी है। अब नरेन्द्र मोदी या वरुण गांधी जैसे स्टार प्रचारक कितने भी गुजरात बनाने या मुसलमानों के हाथ काटने की बात करें, 'भाजपा शाईन' होना मुश्किल ही लगता है। क्या कोई भाजपाई यह बतायेगा कि क्या केवल दूसरे समुदायों के प्रति अनाप-शनाप बोल कर ही वोट हासिल किए जा सकते हैं ? क्या इस देश में मुद्दों का अकाल पड़ गया है ? भाजपा को तो मुसलमानों को एहसानमंद होना चाहिए कि वह उनकी वजह से 'मृत्यू शैया' से उठकर फिर से चलने-फिरने लगी है। मैं तो कभी-कभी यह सोचता हूं कि यदि इस देश में मुसलमान नहीं होते तो भाजपाई तो भूखे ही मर जाते।