Tuesday, March 31, 2009

वरुण पर रासुका सही फैसला




सलीम अख्तर सिद्दीक़ी
संघ परिवार हिन्दुत्व और राम मंदिर के आगे कुछ भी नहीं सोच पाता। कम से कम मुझे याद नहीं पड़ता कि चुनाव की बेला में कभी उसने हिन्दुत्व और राम मंदिर का राग न अलापा हो। उसे बेरोजगारी की चिंता नहीं है। किसानों की बदहाली से उसे कुछ लेना-देना नहीं है। गरीबी और बदहलाी उसके कभी एजेंडे में नहीं रही। पता नहीं आडवाणी साहब ने या फिर संघ परिवार ने वरुण (उनके नाम के आगे मैं गांधी जान बूझकर प्रयोग नहीं कर रहा हुं, क्योंकि ऐसा करना महात्मा गांधी का अपमान होगा) को यह समझा दिया कि मुसलमानों को गालियां देकर और जय श्रीराम का नारा लगाकर चुनाव की वैतरणी पार की जा सकती है। या फिर वरुण को लगा हो कि वे अपने चचेरे भाई राहुल गांधी से पिछड़ रहे हैं, इसलिए साम्प्रदायिक कार्ड चला हो। कारण कुछ भी रहा हो, लेकिन अब तक संघ परिवार की समझ में शायद यह नहीं आया है कि राम मंदिर का मुद्दा राख के ढेर में कब का तब्दील हो चुका है। वरुण उसी राख के ढेर में चिन्गारी ढूंढने की कोशिश में वह सब कुछ कह गए, जिसने उन्हें सलाखों के पीछे पहुंचा दिया है। बहुत लोगों की राय है कि उत्तर प्रदेश सरकार ने वरुण कों गिरफ्तार करके और फिर रासुका तामील करके उन्हें हीरो बना दिया है। कोई हीरो न बन जाए, महज इसी बात को लेकर कानून का पालन न किया जाए, बेमानी है। यदि वरुण को खुला छोड़ दिया जाता तो उनका हौसला और बढ़ता, जो प्रदेश की कानून व्यवस्था के लिए खतरनाक हो सकता था। वरुण गांधी की गिरफ्तारी के समय पूरा उत्तर प्रदेश शांत रहा। सिर्फ पीलीभीत के कुछ लड़के हाय तौबा मचाकर चुप हो गए। अब इतना तो होगा ही कि जो लोग साम्प्रदायिक वैमनस्य फैलाकर चुनाव की वैतरणी पार करने सोच रहे है, कुछ भी अनाप-शनाप बोलने से पहले दस बार सोचेंगे।
वरुण क्या यह नहीं जानते कि विनय कटियार, उमा भारती, प्रवीण तोगड़िया, साध्वी रितम्भरा और अशोक सिंहल जैसे लोग अब किनारे लगा दिए गए हैं। एक जमाना था, जब इन लोगों की नफरत भरी बातों से पूरे उत्त्र प्रदेश में आग लग जाती थी। इनकी सभाओं में लाखों की भीड़ जुटती थी। अब ये पुराने दिनों का याद करके सिर्फ आहें भरते हैं। इनकी सभाओं में सौ-पचास से अधिक लोग भी नहीं जुटते। कल्याण सिंह जैसे हिन्दुत्व के पुरोधा भी अब भाजपा को दफनाने का लक्ष्य लेकर समाजवादी के साथ हो गए हैं। आडवाणी तो पाकिस्तान में जाकर उन जिनाह की मजार पर जाकर उन्हें धर्मरिपेक्ष व्यक्ति का खिताब दे आए, जिन्हें कोसते-कोसते आडवाणी साहब ने अपनी उम्र गुजार दी। आडवाणी साहब भी यह समझ चुके हैं कि साम्प्रदायिक राजनीति की एक सीमा है। यह बात मायावती की समझ में भी आ गयी है कि केवल दलितों के सहारे लम्बे समय तक राजनीति नहीं की जा सकती। इसलिए वे भी अब सर्वसमाज की बात करने लगीं हैं। यह बात वरुण को भी यह बात समझ लेनी चाहिए कि साम्प्रदायिक राजनीति शॉर्टकट रास्ता तो है, लेकिन उससे राजनीति की लम्बी पारी नहीं खेली जा सकती।
अब पशु प्रेमी वरुण की मां मेनका की बात करें। मेनका पशु और पक्षियों की बहुत हमदर्द हैं। जब वे पीलीभीत से लौट रही थीं तो उन्हें एक ट्रक में कुछ भैंसें दिखायी दीं। उनका पशु प्रेम जागा। उनसे रहा नहीं गया। उन्होंने ट्रक रुकवाकर भैंसों को आजाद करा दिया। इधर, हमारे शहर मेरठ में उन कुत्तों का बहुत आतंक बरपा है, जो पागल हो गए हैं। दो-तीन बच्च्े इन कुत्तों के शिकार हो गए। जनता का कहर कुत्तो पर टूट पड़ा। शहर में लगभग पचास कुत्तों को मार गिराया गया। नगर निगम की टीम भी कुत्तों का पकड़ कर कांजी हाउस में बंद करने लगी। मेनका गांधी एक संस्था पीपुल्स फॉर एनिमल चलाती हैं। संस्था के स्थानीय पदाधिकारियों ने मेनका गांधी को सूचित किया कि कैसे मेरठ में कुत्तों का बेदर्दी से मारा जा रहा हैं। मेनका गांधी ने कुत्तों पर होने वाली ज्यादतियों के खिलाफ बयान जारी किए। इधर, जब उनके बेटे वरुण ने पीलीभीत की एक सभा में मुसलमानों के हाथ काटने जैसे उग्र्र भाषण दिए तो लोगों को उम्मीद थी कि पुश-पक्षियों के मामले में संवेदनशील मेनका अपने बेटे के बचाव में न आकर बेटे को संयम बरतने की सलाह देंगी। लेकिन हुआ उल्टा। मेनका न सिर्फ बेटे के बचाव में आगे आयीं बल्कि बेटे का समर्थन किया। सवाल यह पैदा होता है कि जानवरों को न मारने की बात करने वाली मेनका इन्सानों के हाथ काट लेने की बात का कैसे समर्थन कर सकती हैं ? क्या उनकी नजर में इंसान की कीमत जानवरों से भी कम है ? या फिर मुसलमानों की जान की कीमत कम है ?

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Wednesday, March 18, 2009

क्या करे मुस्लिम वोटर ?

सलीम अख्तर सिद्दीक़ी
पन्द्रहवीं लोकसभा का बिगुल बजते ही मुस्लिम वोटों के व्यापारी अलग-अलग भेष में अवरित हो गये हैं। अचानक ही कुछ ऐसे मुस्लिम संगठन मैदान में आ गए हैं, जिनकी कोशिश यह है कि मुस्लिम वोटों का बिखराव हो और कम से कम मुस्लिम सांसद आने वाली लोकसभा में पहुंचे। आबादी का 20-22 प्रतिशत होने के बावजूद संसद में मुसलमानों का प्रतिनिधत्व कभी भी साढ़े आठ प्रतिशत से अधिक नहीं रहा। केवल 1980 में 46 मुस्लिम सांसद जीतकर संसद पहुंचे थे। आबादी के ऐतबार से कम से कम 125 मुस्लिम सांसद लोकसभा में होने चाहिएं। इस कम प्रतिशत का एक महज कारण राजनैतिक दलों की बेईमानी है। ये दल मुसलमानों को वहां से चुनाव लड़वाते हैं, जहां मुसलमानों की आबादी कम है। उदाहरण के लिए 1998 के चुनाव में डा0 मैराजुद्दीन को सपा ने बागपत से लोकसभा का प्रत्याशी बनाया था। सब जानते हैं कि बागपत से चौधरी चरणसिंह के वंशज के अलावा कोई नहीं जीत सकता। दूसरी बात यह कि मुसलमान भाजपा विरोध के नाम पर मुस्लिम बाहुल्य निर्वाचन क्षेत्र से किसी भी गैर मुस्लिम प्रत्याशी को तो अपना वोट तो देता है। लेकिन किसी हिन्दू बाहुल्य क्षेत्र से किसी भी कथित सैक्यूलर पार्टी का मुस्लिम प्रत्याशी मुश्किल से ही जीत पाता है।
आजादी के बाद से मुसलमान कांग्रेस का परम्परागत वोटर रहा था। 1977 में इमरजैंसी में नसबंदी के सवाल पर मुसलमान कांग्रेस से विमुख हो गया और उसने जनता पार्टी का साथ दिया। 1980 के मध्यावधि में मुसलमान फिर से कांग्रेस के पाले में आ गए। लेकिन 1986 में बाबरी मस्जिद का ताला खुलने के बाद देश में, खासतौर से उत्तर प्रदेश में भारतीय जनता पार्टी के द्वारा चलाया गये राम मंदिर आन्दोलन के कारण उत्तर प्रदेश साम्प्रदायिक दंगों का का प्रदेश बन गया। केन्द्र और उत्तर प्रदेश में कांग्रेस की सरकार के दौरान मुसलमानों पर अत्याचार हुए। इसी नाराजगी के चलते 1989 के चुनाव में मुसलमानों ने जनता दल का समर्थन किया। उत्तर प्रदेश में जनता दल के मुलायम सिंह मुख्यमंत्री बने। अक्टूबर 1990 में कार सेवकों ने बाबरी मस्जिद को गिराने की कोशिश की तो मुलायम सिंह ने कार सेवकों पर गोली चलवाकर कारसेवकों का मंसूबा विफल कर दिया। बस यहीं से मुलायम सिंह यादव मुसलमानों के मसीहा के रुप में उभरे। मुसलमानों ने लगातार समाजवादी पार्टी का समर्थन किया। 1991 के मध्यावधि चुनाव के दूसरे चरण के दौरान राजीव गांधी की हत्या के बाद उमड़ी सहानुभूति के चलते कांग्रेस दोबारा सत्ता में आ गयी। 1992 में बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद मुसलमान कांग्रेस से बिल्कुल अलग हो गये।
कांग्रेस से छिटके मुस्लिम वोटर ने अपना भविष्य क्षेत्रीय दलों में देखना शुरु कर दिया। उप्र में वह समाजवादी पार्टी, लोकदल और बसपा के साथ रहा तो बिहार में राजद और लोजपा को अपना हमदर्द बनाया। आंध्र प्रदेश में वह तेदेपा से जुड़ा तो पश्चिम बंगाल में वामपंथी पार्टियों को वोट देता रहा। लेकिन कुछ क्षेत्रीय दलों ने भी सत्ता की खातिर मुसलमानों को ठगा। तेदेपा, जनता दल (यू), डीएमके, तृणमूल कांगेस, बसपा, लोजपा और नेशनल कांन्फरेन्स जैसे क्षेत्रीय दलों ने 1999 में भाजपा के साथ सत्ता में भागीदारी की। 2002 में गुजरात दंगों के दौरान ये दल मूकदर्शक बने रहे। पश्चिम बंगाल में वामपंथियों ने भी नन्दीग्राम और सिंगूर में मुस्लिम विरोधी चेहरा दिखाया। उत्तर प्रदेश में तो मायावती ने तीन-तीन बार भाजपा के साथ सरकार बनायी। मायावती ने तो तब हद कर दी, जब उन्होंने गुजरात में मोदी के पक्ष में प्रचार किया। मुसलमान केवल भाजपा को हराने के लिए वोट करते रहे और उनके वोटों के बल पर क्षेत्रीय दल सत्ता का सुख भोगते रहे। अब, जब लोकसभा चुनाव की घोषणा हो चुकी है तो मुस्लिम वोटों की चाहत में ये क्षेत्रीय दल एक बार फिर भाजपा का भय दिखाकर मुसलमानों को बरगलाने में लगे हैं। सवाल यह है कि मुसलमान केवल भाजपा को हराने के लिए ही कब तक वोट करता रहेगा ? अपने हक के लिए वह कब जागेगा ? इधर कुछ ऐसे मुस्लिम संगठन, जो किसी न किसी राजनैतिक दल से जुड़े हैं, जगह-जगह मुस्लिम कन्वेंशन करके मुसलमानों को गुमराह कर हैं। ये मुस्लिम संगठन पूरे पांच साल तक गुम रहते हैं। अब वक्त आ गया है कि मुसलमान अपने वोटों का बिखराव न करके संसद में ऐसे प्रत्याशियों को चुनकर भेजें, जो वास्तव में दिल और दिमाग से धर्मनिरपेक्ष हों और संसद में मुसलमानों के हक की लड़ाई लड़ सकें। केवल भाजपा को हराने के लिए वोट करने का सिलसिला अब बंद होना चाहिए।

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Wednesday, March 11, 2009

कौम के तथाकथित ठेकेदार




चुनाव का मौसम आते ही मुस्लिम राजनीति में हलचल शुरु हो जाती है। लगभग सभी राजनैतिक दलों में मुसलमानों का सच्चा हितैषी और हमदर्द बताने की होड़ शुरु हो जाती है। यह होड़ गलत भी नहीं है। मुसलमान इस देश की लोकसभा की कम से कम सौ सीटों पर निर्णायक सिद्व होते हैं। मुस्लिम वोटों के लिए उत्तर प्रदेश में कुछ ज्यादा ही मारामारी रहती है। उत्तर प्रदेश में मुस्लिमों का वोट प्रतिशत सत्रह है। इन सत्रह प्रतिशत वोटों के लिए राजनैतिक दलों की लार टपकती है। मुस्लिम वोटों की महत्ता को इसी बात से समझा जा सकता है कि भाजपा भी अक्सर मुसलमानों को रिझाने में जुट जाती है। यह अलग बात है कि मुसलमान किसी भी सूरत में भाजपा को अपनाने को तैयार नहीं हैं। इधर कुछ मुस्लिम नेताओं को लगने लगा है कि मुसलमानों की पार्टी बनाकर बसपा की तरह राजनैतिक ताकत हासिल की जा सकती है। इसलिए कुछ ऐसे मुस्लिम नेता, जिन्हें किसी वजह से कोई पार्टी टिकट नहीं देती, अपनी कयादत, अपनी सियासत, अपनी ताकत का नारा लगाकर चुनाव के मैदान में उतर जाते हैं। इन तथाकथित मुस्लिम नेताओं की एकमात्र योग्यता यह है कि ये पैसे वाले हैं। मीट के कारोबार ने इन्हें अरबपति बना दिया है। उत्तर प्रदेश के पिछले चुनाव में याकूब कुरैशी ने असम यूडीएफ की कामयाबी की देखादेखी यूपी यूडीएफ का गठन करके अपने प्रत्याशी उतारे। यूपी यूडीएफ थिंक टैंक का शायद यह मानना रहा था कि पांच-सात विधायक जीत जाएं तो विधानसभा के त्रिशंकु आने की स्थिति में सरकार में शामिल हुआ जा सकता है। यूडीएफ के प्रत्याशी न सिर्फ बुरी तरह हारे बल्कि उनकी जमानतें जब्त हो गयी । खुद याकूब कुरैशी ने मात्र हजार-बारह सौ वोटों से जीतकर लाज बचायी । बसपा पूर्ण बहुमत में आ गयी और याकूब साहब का कौम प्रेम एक झटके में ही काफूर हो गया। दिन भी नहीं निकला था कि पता चला कि याकूब साहब ने अपनी लाज मायावती के चरणों में रख दी है।
अब जब लोकसभा के चुनाव निकट हैं तो दूसरे मीट कारोबारी शाहिद अखलाक के मन में कौम के प्रति प्रेम का जज्बा हिलोरें लेने लगा है। बसपा और सपा से धकियाये गये शाहिद अखलाक को कोई ठिकाना नहीं मिला तो सैक्यूलर एकता पार्टी बना ली है। इस पार्टी के अध्यक्ष पद के लिए उन्हें पूरी मुस्लिम कौम से कोई योग्य आदमी नहीं मिला तो खुद ही अध्यक्ष बनना उनकी मजबूरी हो गया। यह तय है कि महासचिव पद के लिए भी कोई सैक्यूलर हिन्दू उन्हें नहीं मिलेगा इसलिए महासचिव भी उनका कोई भाई या भतीजा ही बनेगा। जाहिर है लोकसभा का चुनाव भी खुद ही लड़ेंगे और विधानसभा या मेयर का चुनाव आयेगा तो इनकी पत्नि या भाई लड़ेगा। कौम की खिदमत करने के लिए ऐसा करना उनकी मजबूरी है।
इन तथाकथित कौम के ठेकेदारों से सवाल ऐसे अनगिनत सवाल किए जा सकते हैं, जिनका जवाब शायद ही इनके पास हो ? याकूब कुरैशी उत्तर प्रदेश सरकार में मंत्री रहे हैं तो शाहिद अखलाक मेयर भी रहे और सांसद भी। क्या ये बतायेंगे कि इन दोनों ने कौम की भलाई के लिए अब तक क्या किया है ? इन नेताओं ने मुस्लिम क्षेत्रों में कितने सरकारी प्राइमरी स्कूल या अस्पताल खुलवायें हैं ? यहां यह बताना जरुरी है कि इस्लामबाद, तारापुरी, रशीद नगर, अहमदनगर, जाकिर कालोनी जैसे मुस्लिम बाहुल्य क्षेत्रों में एक भी सरकारी प्राइमरी स्कूल और अस्पताल नहीं है। यह हाल तब है, जब मेरठ-हापुड़ लोकसभा के सपा प्रत्याशी शाहिद मंजरू सपा सरकार में शिक्षा मंत्री रहे हैं ? क्या इन नेताओं ने कभी सोचा है कि अखबारों में बड़े-बडे+ विज्ञापनों पर खर्च होने वाले करोड़ों रुपयों से कई स्कूल, कालेज और अस्पताल खोले जा सकते थे ? 1987 के हाशिमपुरा कांड के पीड़ितों ने अपनी लड़ाई खुद लड़ी है। क्या इन कौम के तथाकथित ठेकदारों ने कभी हाशिमपुरा के लोगों की तकलीफों को जानने की कोशिश की ? मलियाना कांड के दंगा पीडितों को केवल बीस-बीस हजार का मुआवजा ही मिल सका है। क्या कभी ऐसी कोशिश इन नेताओं की ओर से की गयी कि मलियाना कांड के पीड़ितों को भी 1984 के दंगा पीड़ितों की तर्ज पर कोई राहत पैकेज मिले ? आज की तारीख में मलियाना केस की सुनवाई फास्टट्रैक कोर्ट में तेजी के साथ चल रही है। क्या उन्होंने कभी पूछा की मलियाना केस किस स्थिति में है और केस को किस तरह से लड़ा जा रहा है ? पिछले दिनों सांसदी खोने के बाद शाहिद अखलाक सच्चर समिति की रिपोर्ट लागू करने के लिए जगह-जगह सभाएं कर रहे थे। लेकिन सांसद रहते उन्होंने संसद में कभी अपना मुंह नहीं खोला। सच और कड़वी बात यह है कि इन नेताओं को कौम की तभी याद आती है, जब चुनाव आता है। जीतने या चुनाव खत्म होने के बाद ये नेता फिर अपनी उस आरामगाह में होते हैं, जहां तक पहुंचने की हिम्मत कौम नहीं कर सकती। हालत यह है कि ये नेता नमाज भी मस्जिद में पढ़ने के बजाय अपने घर में ही पढ़ना ठीक समझते हैं।
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