हमेशा से ही मेरा यह मानना रहा है कि एक साल का अंत भी उसी तरह से है, जिस तरह से एक सैकिण्ड, एक मिनट, एक घंटा, एक दिन और एक महीना गुजर जाता है। क्योंकि साल वक्त की बड़ी ईकाई है, शायद इसलिए इसकी अहमियत ज्यादा होती है। इसलिए गुजरे साल का लेखा-जोखा देखने के साथ ही आने वाले साल का आगाज इस उम्मीद के साथ किया जाता है कि आने वाला साल सुख-समृद्वि से भरपूर रहे। यह सच्चाई है कि नया साल सभी के लिए एक सा कभी नहीं रहा। किसी के लिए दुख और किसी के लिए सुख लेकर आता रहता है। यही कुदरत का नियम भी है। वक्त न तो किसी का इन्तजार करता है न ही किसी का मोहताज होता है। कहा जाता है कि जो वक्त की कद्र नहीं करता, वक्त उसकी कद्र नहीं करता। वक्त किसी पर मेहरबान होता है तो किसी पर आफत बनकर टूट पड़ता है। किसी ने सही कहा था, वक्त की हर शै गुलाम होती है। वक्त ने जाते-जाते बुश को एक पत्रकार के हाथों दुनिया भर में जलील करा दिया तो पत्रकार मुंतिजर अली को दुनिया का हीरो बना दिया। इसी वक्त ने आसिफ अली जरदारी को जेल से सीधे राष्ट्रपति की कुर्सी तक पहुंचा दिया। वक्त कभी भी कुछ भी करा सकता है। यह मेरी समझ है। कुछ लोग वक्त को नहीं, कर्म को ही सब कुछ मानते हैं। लेकिन कर्म और वक्त को चोली दामन का साथ है।
बहरहाल, 2008 देश-दुनिया पर भारी गुजरा है। मंदी की मार ने अच्छों-अच्छों की जेबें ढीली कर दीं। कुछ की तो जेबें न सिर्फ खाली हो गयीं बल्कि कर्ज का बोझ लद गया। पिछले साल के आगाज के वक्त जो शेयर सूचकांक कुलांचे भरते 21000 हजार तक पहुंच गया था, वह साल खत्म होते-होते यह रसातल में पहुंच गया। इस साल भी शेयर बाजार की हालत मे सुधार होने के आसार कम ही नजर आ रहे हैं। आतंकवाद के खूनी चेहरे ने देश को सकते में डाला तो इसी आतंकवाद ने देश को एक सुर में बोलने के लिए मजबूर कर दिया। यदि वक्त के रहते सभी ने सुर में सुर मिला दिया होता तो मुंबई जैसी त्रासदी देखने को नहीं मिलती। देश में एकता आयी है, लेकिन बहुत बड़ी कीमत देने के बाद। 2009 में भी यही एकता कायम रह सके तो मुंबई जैसी त्रासदी से बचा रहा जा सकता है। सरकारें आती-जाती रहती हैं। दुश्मनों से देश को बचाना पहली प्राथमिकता होनी चाहिए।
2008 में मंहगाई ने गरीबों का निवाला छीन लिया। मंहगाई आंकड़ों में कम होती रही लेकिन आम आदमी को कोई राहत मिलती दिखायी नहीं दी। इस देश की सबसे बड़ी त्रासदी यही है कि साल के अंत में फिल्म, क्रिकेट, फैशन और कारों की बिक्री का लेखा-जोखा तो देखा जाता है। लेकिन देश में कितने किसानों ने आत्महत्या की, कितने लोग भूख से मरे, छंटनी के चलते कितने लोग बेरोजगार हुऐ, इसका कहीं कोई लेखा-जोखा नहीं है। यह विडम्बना है कि जिस देश की 70 फीसदी आबादी गरीबी की रेखा के नीचे जीने के लिए अभिशप्त है, उस देश में नए साल की खुशियां मनाकर गरीबों का मजाक उड़ाया जाता है। करोड़ों रुपयों की शराब पानी की तरह बहा दी जाती है। लड़कियों को नंगा नचाया जाता है। ठीक है। मुंबई हमलों के कारण इस बार नए साल का स्वागत करने के लिए बड़े आयोजन नहीं हो रहे हैं, लेकिन हर साल तो गरीबों के जख्मों पर नमक छिड़का जाता रहा ही है। सच यह भी है कि यदि मुंबई में आतंकवादियों के हमलों के शिकार नामचीन लोग न होकर हमेशा की तरह आम आदमी ही होते तो शायद इस बार भी नए साल का स्वागत जोर-शोर से ही किया जाता। क्या कभी इस देश में हजारों किसानों की आत्महत्या करने के गम में नए साल की स्वागत में मनायी जाने वाली धमाचौकड़ी से परहेज करने की कोशिश तक भी की गयी है ? 2009 में सबसे निचले तबकों के लोगों की बात होना जरुरी है। सिर्फ बात ही नहीं गरीबों के लिए बनायी गयीं सरकारी योजनाओं का लाभ उन तक पहुंचाने की ईमानदारी से कवायद होनी चाहिए। 2008 हमें सबक देकर जा रहा है। उस सबक को याद रखकर 2009 को ऐसे साल में तब्दील में करने की कोशिश होनी चाहिए कि कोई ऐरा-गेरा आकर देश का मान मर्दन करने की कोशिश न कर सके। शेयर बाजार उंचाइयों पर पहुंचे, लेकिन यह भी ध्यान रहे कि गरीबों को भी दो वक्त की रोटी समय पर मिलती रहे। भूख से कोई मरे नहीं और किसान आत्महत्या करने को विवश न हों। वैसे तो जैसा मैंने शुरु में कहा वक्त और कर्म सबसे बड़ी चीज है। 2009 में गरीबी, भुखमरी, आतंकवाद और भ्रष्टाचार के खिलाफ जेहाद की शुरुआत होनी चाहिए। आमीन।
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Wednesday, December 31, 2008
Sunday, December 21, 2008
बाबरी मस्जिद, गुजरात, आतंकवाद और पाक
मुंबई के आतंकी हमलावरों ने जब ताज होटल में कुछ लोगों को बंधक बनाया तो बंधकों में से एक ने हिम्मत करके पूछा ÷तुम लोग ऐसा क्यों कर रहे हो ?' इस पर एक आतंकी ने कहा, ÷क्या तुमने बाबरी मस्जिद का नाम नहीं सुना ? क्या तुमने गोधरा के बारे में नहीं सुना ?' आतंकी बाबरी मस्जिद और गुजरात का हवाला देकर अपनी नापाक हरकत को पाक ठहराने का कुतर्क दे रहे थे। सिर्फ मुंबई ही नहीं देश के अन्य हिस्सों में हुई आतंकी वारदात को अंजाम देने वाले संगठन बाबरी मस्जिद और गुजरात को ढाल बनाते रहे हैं। इन आतंकियों से पूछा जाना चाहिए, जिन बेकसूर लोगों को तुम निशाना बनाते हो क्या वे लोग बाबरी मस्जिद विध्वंस और गुजरात दंगों के लिए जिम्मेदार थे ? आतंकी हमलों में मारे गए उन बच्चों का क्या कसूर था, जिन्होंने बाबरी मस्जिद विध्वंस और गुजरात दंगों के बाद ही दुनिया देखी थी ? भारतीय मुसलमानों की हमदर्दी का नाटक करने वाले आतंकी संगठन क्या इस तरह से फायरिंग करते हैं या बमों को प्लांट करते हैं कि मुसलमान बच जायें और दूसरे समुदाय के लोग मारे जायें। आतंकियों को मालूम हो चुका होगा मुंबई हमलों में ही 40 मुसलमानों ने अपनी जान गंवाई है और 70 के लगभग घायल हुऐ हैं। पहले भी मुसलमान आतंकी हमलों के शिकार होते रहे हैं। मुसलमानों को निशाना बनाकर वे बाबरी मस्जिद और गुजरात का कैसा बदला है, यह समझ से बाहर है।
दरअसल, बाबरी मस्जिद और गुजरात का नाम लेकर आतंकी भारतीय मुसलमानों की हमदर्दी हासिल करने के साथ ही मुसलमानों और हिन्दुओं के बीच की दूरी बढ़ाना चाहते हैं। लेकिन दोनों ही समुदायों ने उनकी चाल को कभी कामयाब नहीं होने दिया। मुंबई हमलों के बाद तो हिन्दुओं और मुसलमानों की बीच की दूरियां कम ही हुई हैं। इससे बड़ी क्या बात हो सकती है, भारतीय मुसलमान मारे गए आतंकियों को भारत की सरजमीं पर दफन होते भी नहीं देखना चाहते। आतंकियों और पाकिस्तान के खिलाफ मुसलमानों का गुस्सा इस बात का संकेत है कि मुसलमान भी अब बाबरी मस्जिद और गुजरात को आतंकियों की ढाल बनता नहीं देखना चाहते हैं।
बाबरी मस्जिद विध्वंस और गुजरात दंगे हमारे देश का अपना मसला है। भारतीय मुसलमानों ने बाबरी मस्जिद विध्वंस और गुजरात दंगों का बदला लेने के लिए पाकिस्तानियों को अधिकृत नहीं किया है। मुसलमानों को अपने देश के संविधान और न्यायपालिका पर भरोसा है। मुसलमान अपने उपर होने वाले जुल्म की लड़ाई को इस देश के हिन्दुओं के सहयोग से लड़ता रहेगा। मुसलमानों ने कभी पाकिस्तान से मदद नहीं मांगी और न ही मांगना चाहते हैं। गुजरात और बाबरी मस्जिद की आड़ में आतंक बरपाने वाले लोगों के देश में गुजरात और बाबरी मस्जिद जैसे हादसों की गिनती करना मुश्किल है। पाकिस्तान में नमाजियों से भरी मस्जिद को बमों से उड़ाकर कौनसी मस्जिद के विध्वंस का बदला लिया जाता है ? आत्मघाती हमलों में बेकसूर लोगों की जान लेकर किस गुजरात का बदला लिया जाता है ? भारतीय मुसलमानों पर होने वाले अत्याचार का बहाना बनाकर आतंकी वारदात करने वालों को पहले अपने देश के उन मुसलमानों पर गौर करना चाहिए, जिन्हें आज तक भी पाकिस्तानी होने का सर्टीफिकेट नहीं मिल सका है। बंटवारे के समय पाकिस्तान गए भारतीय मुसलमानों पर महाजिर (शरणार्थी) होने का लेबल हटा नहीं है। पाकिस्तान मे आरक्षण को इस तरह से लागू किया गया है कि महाजिर युवाओं को नौकरी नसीब नहीं होती । छंटनी के नाम पर महाजिरों को नौकरियों से बेदखल करके उनके स्थान पर सिंधियों और पंजाबियों को रखा जाता है। महाजिरों को रॉ का एजेन्ट बताकर उन पर अत्याचार का सिलसिला चलता रहता है। हजारों महाजिर युवाओं को बेदर्दी से मार दिया जाता है। मरने वालों को न तो किसी प्रकार का मुआवजा मिलता है और ही कहीं कोई सुनवाई होती है। महाजिरों के नेता अल्ताफ हुसैन को लन्दन में निर्वासित जीवन जीना पड़ रहा है। उनका कसूर यह है कि वे महाजिरों पर होने वाली ज्यादतियों को विरोध करते हैं। हद यह है कि मरहूम बेनजीर भूट्टो एक बार महाजिरों को हिन्दुओं और सिखों की नाजायज औलाद कह चुकी हैं।
एक हादसे की बदौलत ÷मिस्टर 10 परसेन्ट' से मिस्टर 100 परसेन्ट बने आसिफ अली जरदारी की बेशर्मी देखिए कि वह सबूत होने के बाद भी यह मानने को तैयार नहीं हैं कि आतंकवादी पाकिस्तान से ही ट्रेनिंग लेकर आए थे। उनके झूठ का पर्दाफाश करने वाले निजी न्यूज चैनल पर देशद्रोह का मुकदमा कायम करके आसिफ जरदारी लोकतन्त्र में तानाशाह जैसा बर्ताव कर रहे हैं।
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दरअसल, बाबरी मस्जिद और गुजरात का नाम लेकर आतंकी भारतीय मुसलमानों की हमदर्दी हासिल करने के साथ ही मुसलमानों और हिन्दुओं के बीच की दूरी बढ़ाना चाहते हैं। लेकिन दोनों ही समुदायों ने उनकी चाल को कभी कामयाब नहीं होने दिया। मुंबई हमलों के बाद तो हिन्दुओं और मुसलमानों की बीच की दूरियां कम ही हुई हैं। इससे बड़ी क्या बात हो सकती है, भारतीय मुसलमान मारे गए आतंकियों को भारत की सरजमीं पर दफन होते भी नहीं देखना चाहते। आतंकियों और पाकिस्तान के खिलाफ मुसलमानों का गुस्सा इस बात का संकेत है कि मुसलमान भी अब बाबरी मस्जिद और गुजरात को आतंकियों की ढाल बनता नहीं देखना चाहते हैं।
बाबरी मस्जिद विध्वंस और गुजरात दंगे हमारे देश का अपना मसला है। भारतीय मुसलमानों ने बाबरी मस्जिद विध्वंस और गुजरात दंगों का बदला लेने के लिए पाकिस्तानियों को अधिकृत नहीं किया है। मुसलमानों को अपने देश के संविधान और न्यायपालिका पर भरोसा है। मुसलमान अपने उपर होने वाले जुल्म की लड़ाई को इस देश के हिन्दुओं के सहयोग से लड़ता रहेगा। मुसलमानों ने कभी पाकिस्तान से मदद नहीं मांगी और न ही मांगना चाहते हैं। गुजरात और बाबरी मस्जिद की आड़ में आतंक बरपाने वाले लोगों के देश में गुजरात और बाबरी मस्जिद जैसे हादसों की गिनती करना मुश्किल है। पाकिस्तान में नमाजियों से भरी मस्जिद को बमों से उड़ाकर कौनसी मस्जिद के विध्वंस का बदला लिया जाता है ? आत्मघाती हमलों में बेकसूर लोगों की जान लेकर किस गुजरात का बदला लिया जाता है ? भारतीय मुसलमानों पर होने वाले अत्याचार का बहाना बनाकर आतंकी वारदात करने वालों को पहले अपने देश के उन मुसलमानों पर गौर करना चाहिए, जिन्हें आज तक भी पाकिस्तानी होने का सर्टीफिकेट नहीं मिल सका है। बंटवारे के समय पाकिस्तान गए भारतीय मुसलमानों पर महाजिर (शरणार्थी) होने का लेबल हटा नहीं है। पाकिस्तान मे आरक्षण को इस तरह से लागू किया गया है कि महाजिर युवाओं को नौकरी नसीब नहीं होती । छंटनी के नाम पर महाजिरों को नौकरियों से बेदखल करके उनके स्थान पर सिंधियों और पंजाबियों को रखा जाता है। महाजिरों को रॉ का एजेन्ट बताकर उन पर अत्याचार का सिलसिला चलता रहता है। हजारों महाजिर युवाओं को बेदर्दी से मार दिया जाता है। मरने वालों को न तो किसी प्रकार का मुआवजा मिलता है और ही कहीं कोई सुनवाई होती है। महाजिरों के नेता अल्ताफ हुसैन को लन्दन में निर्वासित जीवन जीना पड़ रहा है। उनका कसूर यह है कि वे महाजिरों पर होने वाली ज्यादतियों को विरोध करते हैं। हद यह है कि मरहूम बेनजीर भूट्टो एक बार महाजिरों को हिन्दुओं और सिखों की नाजायज औलाद कह चुकी हैं।
एक हादसे की बदौलत ÷मिस्टर 10 परसेन्ट' से मिस्टर 100 परसेन्ट बने आसिफ अली जरदारी की बेशर्मी देखिए कि वह सबूत होने के बाद भी यह मानने को तैयार नहीं हैं कि आतंकवादी पाकिस्तान से ही ट्रेनिंग लेकर आए थे। उनके झूठ का पर्दाफाश करने वाले निजी न्यूज चैनल पर देशद्रोह का मुकदमा कायम करके आसिफ जरदारी लोकतन्त्र में तानाशाह जैसा बर्ताव कर रहे हैं।
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Friday, December 5, 2008
आतंकवाद से लड़ाई में सबसे कमजोर कड़ी है पाक
मुंबई में आतंकी हमले से देश की जनता में नेताओं के बाद सबसे ज्यादा गुस्सा पाकिस्तान पर है। प्रत्येक आतंकी हमले के बाद पाकिस्तान पर इल्जाम आयद किये जाते हैं। इसमें दो राय नहीं कि पाकिस्तान आतंकवाद की धुरी बना हुआ है। लेकिन इस बात को भी समझें कि पाकिस्तान को आतंकवाद की धुरी बनाया किसने है ? 1979 में जब रुस ने अफगानिस्तान पर कब्जा किया था तो सबसे ज्यादा परेशानी अमेरिका को हुई थी। अमेरिका ने ही पाकिस्तान में पढ़े और बढ़े तालिबान को अफगानिस्तान मे जेहाद के लिए भेजा था। इस जेहाद की कमान उसी ओसामा-बिन-लादेन के हाथों में थी, जो आज अमेरिका के लिए सबसे बड़ा सिरदर्द और कमजोर नस है। पाकिस्तान की मदद से ही अमेरिका ने तालिबान को हथियारों से मालामाल किया था। वे ही दिन थे जब, सूडान, नाइजीरिया, इंडोनेशिया और सउदी अरब जैसे मुस्लिम देशों के मुसलमान जेहाद के नाम अफगानिस्तान में रुसी फौज से लड़े थे। इस बीच अफगानी शरणार्थियों की एक बहुत बड़ी तादाद मय आधुनिक हथियारों के पाकिस्तान आ गयी थी। रुस को अफगानिस्तान छोड़ना पड़ा। रुसी सेना अपने जो हथियार अफगानिस्तान में छोड़ कर भागी थी, उन पर तालिबान का कब्जा हो गया। अमेरिका ने अपना मतलब निकल जाने के बाद खंडहर में तब्दील हो चुके अफगानिस्तान को उसके हाल पर छोड़ दिया। ओसामा की अमेरिका से यही नाराजगी थी कि उसने तालिबानियों से किये वायदों को फरामोश कर दिया था। एक वक्त वह भी आया, जब तालिबान अमेरिका के लिए ही भस्मासुर बन गए। 9/11 के बाद अमेरिका ने आतंकवाद के खिलाफ जंग के नाम पर पहले अफगानिस्तान पर हमला किया और उसके बाद दुनिया की सभी अपीलों और दलीलों को खारिज करके झूठी और मनघढ़ंत सूचनाओं को आधार बनाकर इराक पर हमला किया। ओसामा पकड़ा नहीं जा सका। सद्दाम हुसैन को फांसी दे दी गयी। लेकिन आतंकवाद खत्म नहीं हुआ, बल्कि आतंकवादियों को नए तर्क और बहाने मुहैया हो गए। दुनिया को आतंकवाद की सुनामी में फंसाने वाले जार्ज बुश को शिकस्त मिली। अमेरिका की आतंकवाद के खिलाफ जंग आज भी जारी है। लेकिन आतंकवाद कम होने के बजाय बढ़ता चला गया। इसलिए यह कहा जा सकता है कि केवल किसी देश पर हमला बोल कर आतंकवाद को खत्म नहीं किया जा सकता। यदि ऐसा होता तो अफगानिस्तान और इराक पर हमले के बाद आतंकवाद खत्म होने के बजाय बढ़ता नहीं।
मुंबई पर आतंकी हमले के बाद कुछ लोगों की राय है कि पाकिस्तान में चल रहे आतंकी ट्रेनिंग कैम्पों को भारत नष्ट करे। सवाल यह है कि ÷मंदी के आतंक' के माहौल में क्या पाकिस्तान पर हमला करना आसान है ? वो भी तब, जब पाकिस्तान भी परमाणु बमों से लैस है और हमें यह भी नहीं मालूम कि परमाणु बमों को एक्टिव करने वाले कम्प्यूटर के ÷की-बोर्ड' पर किसकी उंगलियां रखी हैं। पाकिस्तान एक कमजोर देश है। हताशा और निराशा की हालत में वह कुछ भी कर सकता है। 2001 में संसद पर हमले के बाद भी दोनों देशों की फौजें आमने-सामने आ गयी थीं। कहते हैं कि उस समय भी पाकिस्तान ने अमेरिका से यही कहा था कि अपनी सुरक्षा के लिए वह परमाणु ताकत का इस्तेमाल भी कर सकता है। आखिरकार भारतीय फौज को बगैर लड़े ही बारुदी सुरंगें बिछाने और फिर उन्हें हटाने के दौरान अपने आठ सौ जवान गंवाने के बाद वापस बैराकों में वापस बुलाना पड़ा था। उस वक्त उसी दल की सरकार थी, जो आज पाकिस्तान पर हमला करने की सलाह दे रही है। इस बात को नजरअंदाज नहीं करना चाहिए कि पाकिस्तान में अमेरिका के सहयोग से आतंकियों की जो खेप तैयार हुई थी, उसकी कमान पाकिस्तान के हुक्मरानों के हाथों से निकल चुकी है। आतंकवाद की लड़ाई मे पाकिस्तान सबसे कमजोर कड़ी बन गया है। वे हथियार जो जेहाद के नाम पर आतंकवादियों के हाथों में पकड़ाये गए थे, उन का रुख अब उन्हीं लोगों की तरफ है, जो उनके पोषक रहे हैं। पाकिस्तान पर हमला आतंकवाद को बढ़ावा देने वाला कदम हो सकता है। हमें अमेरिका या अन्य किसी देश की तरफ देखने के बजाय अपने देश की सुरक्षा को पुख्ता करने को सबसे ज्यादा तरजीह देनी चाहिए। हमारी सुरक्षा तभी पुख्ता हो सकती है, जब सभी राजनैतिक दल दलगत राजनीति से उठकर एकजुटता का प्रदर्शन करेंगे।
अन्त मे एक बात और। यह बात समझ से परे है कि नेताओं के प्रति गुस्सा दिखाने वाली जनता ने हालिया विधान सभा के चुनावों में अपना गुस्सा वोटिंग से परहेज देकर क्यों नहीं किया ? दिल्ली और राजस्थान विधानसभा के चुनाव तो हमले के फौरन बाद हुऐ हैं। इन दोनों राज्यों में साठ प्रतिशत के लगभग हुआ मतदान इस बात का संकेत हैं कि देश की बहुसंख्यक जनता में लोकतान्त्रिक व्यवस्था में ही विश्वास है। यदि जनता वाकई नेताओं से उब चुकी होती तो मतदान का प्रतिशत इतना क्यों होता ?
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मुंबई पर आतंकी हमले के बाद कुछ लोगों की राय है कि पाकिस्तान में चल रहे आतंकी ट्रेनिंग कैम्पों को भारत नष्ट करे। सवाल यह है कि ÷मंदी के आतंक' के माहौल में क्या पाकिस्तान पर हमला करना आसान है ? वो भी तब, जब पाकिस्तान भी परमाणु बमों से लैस है और हमें यह भी नहीं मालूम कि परमाणु बमों को एक्टिव करने वाले कम्प्यूटर के ÷की-बोर्ड' पर किसकी उंगलियां रखी हैं। पाकिस्तान एक कमजोर देश है। हताशा और निराशा की हालत में वह कुछ भी कर सकता है। 2001 में संसद पर हमले के बाद भी दोनों देशों की फौजें आमने-सामने आ गयी थीं। कहते हैं कि उस समय भी पाकिस्तान ने अमेरिका से यही कहा था कि अपनी सुरक्षा के लिए वह परमाणु ताकत का इस्तेमाल भी कर सकता है। आखिरकार भारतीय फौज को बगैर लड़े ही बारुदी सुरंगें बिछाने और फिर उन्हें हटाने के दौरान अपने आठ सौ जवान गंवाने के बाद वापस बैराकों में वापस बुलाना पड़ा था। उस वक्त उसी दल की सरकार थी, जो आज पाकिस्तान पर हमला करने की सलाह दे रही है। इस बात को नजरअंदाज नहीं करना चाहिए कि पाकिस्तान में अमेरिका के सहयोग से आतंकियों की जो खेप तैयार हुई थी, उसकी कमान पाकिस्तान के हुक्मरानों के हाथों से निकल चुकी है। आतंकवाद की लड़ाई मे पाकिस्तान सबसे कमजोर कड़ी बन गया है। वे हथियार जो जेहाद के नाम पर आतंकवादियों के हाथों में पकड़ाये गए थे, उन का रुख अब उन्हीं लोगों की तरफ है, जो उनके पोषक रहे हैं। पाकिस्तान पर हमला आतंकवाद को बढ़ावा देने वाला कदम हो सकता है। हमें अमेरिका या अन्य किसी देश की तरफ देखने के बजाय अपने देश की सुरक्षा को पुख्ता करने को सबसे ज्यादा तरजीह देनी चाहिए। हमारी सुरक्षा तभी पुख्ता हो सकती है, जब सभी राजनैतिक दल दलगत राजनीति से उठकर एकजुटता का प्रदर्शन करेंगे।
अन्त मे एक बात और। यह बात समझ से परे है कि नेताओं के प्रति गुस्सा दिखाने वाली जनता ने हालिया विधान सभा के चुनावों में अपना गुस्सा वोटिंग से परहेज देकर क्यों नहीं किया ? दिल्ली और राजस्थान विधानसभा के चुनाव तो हमले के फौरन बाद हुऐ हैं। इन दोनों राज्यों में साठ प्रतिशत के लगभग हुआ मतदान इस बात का संकेत हैं कि देश की बहुसंख्यक जनता में लोकतान्त्रिक व्यवस्था में ही विश्वास है। यदि जनता वाकई नेताओं से उब चुकी होती तो मतदान का प्रतिशत इतना क्यों होता ?
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