Friday, November 28, 2008

शर्म मगर नेताओं को नहीं आती

मुंबई पर आतंकी हमला उन बेशर्म नेताओं के मुंह पर एक करारा तमांचा है, जो आतंकवाद पर भी राजनैतिक रोटियां सेंकने में मशगूल रहे और आतंकियों ने देश पर सबसे बड़ा आतंकी हमला कर दिया। मगर नेताओं को शर्म आती। यह हमारे देश का दुर्भाग्य है कि यहां त्रासदी में भी वोट तलाशे जाते हैं। इसीलिए बगैर किसी जांच और निष्कर्ष से पहले ही बयानबाजी शुरु हो जाती है। देश के इस संकट को भी हमारे राजनैतिक दल भुनाने की फिराक में लग गए हैं। कुछ दल इस हमले को एटीएस द्वारा की जा रही मालेगांव धमाकों की जांच को बाधित करने के रुप में देख रहे हैं तो कुछ राजनैतिक दलों और धार्मिक संगठनों की बांछे यह जानकर खिल गयी हैं कि आतंकी हमले में चिर-परिचित दुश्मन पाकिस्तान का हाथ होने की शंका जतायी जा रही है। आतंकियों को पता है कि भारत में हर चीज को वोटों और धार्मिक की नजर से देखा जाता है, इसलिए उनके लिए भारत ÷सॉफ्ट टारगेट' बन गया है। सवाल यह है कि नित नए आतंकी हमलों के बावजूद भी इतनी लाहपरवाही कैसे हुई कि बहुत ही आसानी से आतंकी देश पर सबसे बड़ा हमला करने में कामयाब हो गए ? हमला भी अति सुरक्षित समझे जाने वाले इलाकों में हुआ। जब देश के अति सुरक्षित समझे जाने वाले इलाके ही आतंकियों की पहुंच में है तो उन इलाकों की बात कौन करे, जिनकी सुर+क्षा रामभरोसे रहती है।
सवाल यह नहीं है कि आतंकी हमला पाकिस्तान की शह पर हमारे ही देश के कुछ लोगों के सहयोग से हुआ अथवा मालेगांव की जांच को बाधित करने के उद्देश्य से हुआ। सवाल यह है कि आतंकवाद पर सभी राजनैतिक दल पूर्वाग्रहों से बचते हुए इस समस्या के समाधान के लिए कब एकजुट होंगे ? सभी राजनैतिक दलों को यह समझ लेना चाहिए कि वोटों की खातिर देश को दांव पर लगा देना भी आतंकी सरीखी हरकत है। यदि नेताओं ने जल्दी ही आतंकवाद पर राजनीति बन्द नहीं की तो वो ये समझ लें कि आतंकवाद की आग उनकी चौखट तक भी आ सकती है। कुछ आरएसएस नेताओं की हत्या की साजिश की खबरों को नजरअंदाज नहीं करना चाहिए। सिर्फ पाकिस्तान और मुसलमानों पर ही ध्यान केन्द्रित करने वाली भाजपा और तथाकथित हिन्दू धार्मिक संगठनों को अब चेत जाना चाहिए। क्योंकि अब उनसे भी अधिक ÷हार्ड लाइनर' धार्मिक हिन्दू संगठन अस्तित्व में आ चुके हैं, जो ÷सॉफ्ट हिन्दुत्व' से उकता चुके हैं।
आतंकवाद पर कड़ा कानून बनाने से किसी को परहेज होना नहीं चाहिए। लेकिन मुश्किल फिर वही है कि यहां कड़े कानून बनाने की मांग करने वालों पर ही जब कड़े कानून के तहत कार्यवाई होती है तो वे तिलमिला जाते हैं। मालेगांव विस्फोट के आरोपियों पर मकोका लगाए जाने पर भाजपा की आपत्ति इसका ताजातरीन उदारहण है। यह तो नहीं हो सकता कि किसी एक वर्ग को कड़े कानून से अलग कर दिया जाए और एक वर्ग पर उसका भरपूर इस्तेमाल किया जाए।
आतंकवाद से निपटने के लिए यह बहुत जरुरी है कि इस पर राजनीति बन्द हो। एक कड़ा कानून बने, जिसका इस्तेमाल निष्पक्षता से किया जाए। आतंकवाद को धार्मिक चश्मे से देखना बन्द किया जाए। आतंकवाद से जुड़े मामलों की जांच के लिए संघीय जांच एजेंसी का गठन वक्त की जरुरत है। प्रदेशों की पुलिस द्वारा आतंकवाद के मामलों की जांच करने से समस्या सुलझने के बजाय उलझती ज्यादा है। इस हमले का एक दुखद पहलू एटीएस चीफ हेमंत करकरे का शहीद होना है। उनकी शहादत से ही इस आशंका बल मिल रहा है कि यह आतंकी हमला मालेगांव विस्फोट की जांच को प्रभावित करने के लिए किया गया है। इसमें दो राय नहीं कि हेमन्त करकरे के न रहने से मालेगांव विस्फोट की जांच पर असर पड़ सकता है। देश पर संकट है। यही वक्त है, जब देश की जनता धर्म के खोल से बाहर निकलकर केवल भारतीय होने का सबूत दे। एक ऐसी पहल का आगाज करें, जिसमें आरएसएस, विश्व हिन्दू परिषद सहित सभी मुस्लिम धार्मिक संगठन एक मंच से आतंकवाद का प्रतिकार करके सही अर्थों में देशभक्त होने का सबूत दें।

Monday, November 24, 2008

पुलिस, लड़कियां और मीडिया

अपराध आजकल रोजमर्रा की बात है। अखबार प्रत्येक सुबह कत्ल, लूट, बलात्कार की खबरों से पटे रहते हैं। अब इन सब को समाज ने जैसे आत्मसात सा कर लिया है। लेकिन कुछ खबरों को मीडिया ऐसे बढ़ा-चढ़ाकर पेश करता है कि उनकी गूंज न सिर्फ देर तक बल्कि पूरे देश में सुनी जाती है। खबर कस्बाई संस्कृति को अलविदा कहकर मैट्रो कल्चर को अपनाने को आतुर दिल्ली से मात्र सत्तर किलोमीटर दूर मेरठ की है। मिस मेरठ रह चुकी प्रियंका चौधरी की अपने सगे माता-पिता की हत्या के आरोप में गिरफ्तारी की खबर को मसालेदार बनाने में मीडिया ने हदें लांघ दीं। इस खबर की खास बात यह है की इसमें एक लड़की जो, मिस मेरठ रह चुकी है, पर आरोप है कि उसने जायदाद के लिए अपने माता-पिता का कत्ल अपनी एक दोस्त अन्जू के सहयोग से किया है। इस देश में जायदाद के लिए मां-बाप को मार डालना और भाइयों के बीच कत्लोगारद नई नहीं है। इस तरह की खबर छपती हैं और गायब हो जाती हैं। लेकिन यहां मामला चटखारेदार था। लड़की ग्लैमर की दुनिया से ताल्लुक रखती थी। इसलिए बड़ी खबर बन गयी। यदि इन कत्लों में लड़कियों पर आरोप नहीं लगता तो क्या तब भी मीडिया इसी प्रकार इस खबर को हाईलाइट करता ? क्या लड़कियों के आरोपित होने से ही कोई खबर बड़ी हो जाती है ? सवाल यह भी है की अगर इस हत्याकांड में आरोपित होने वाली लड़कियां मामूली घरों की और ग्लैमरहीन होती तो क्या तब भी मीडिया इतनी ही तवज्जो देता ? पुलिस ने बगैर यह जाने कि एक लड़की ने अपने सगे माता-पिता की हत्या किन हालात में और क्यों की, दोनों लड़कियों को जेल भेज दिया। कहा जा रहा है कि हत्याएं जायदाद के लिए हुईं हैं। यदि जायदाद ही कत्ल का कारण था तो प्रियंका अपने इकलौते भाई गौरव का कत्ल करती, जिसके बाद सारी जायदाद प्रियंका को ही मिलनी थी। पुलिस की कहानी पर हमेशा की तरह मीडिया ने सवालों की बौछार कर दी। सवाल तब और तीखे हो गये, जब इसी गहमागहमी में यह पता चला कि बबीता चौधरी के पति के कत्ल मामले में भी गलत लोगों को जेल भेजा गया था। पुलिस की कहानी पर शक इसलिए भी होता है कि उसने उन सभी करेक्टरों को क्लीन चिट दे दी है, जिन पर प्रियंका और अन्जू ने उंगलियां उठायी थीं। जेल में भी दोनों लड़कियों से वकीलों और स्वयंसेवी संगठनों के उन लोगों से अकेले में नहीं मिलने दिया जा रहा है, जो दोनों लड़कियों को कानूनी मदद करना चाहते हैं।
कत्ल क्यों हुऐ ? प्रियंका और अन्जू ने अकेले किए या कोई तीसरा भी था ? इन सब सवालों से बड़ा सवाल यह है कि केवल अनुमानों और सुनी सुनाई बातों के आधार पर प्रियंका और अन्जू को ÷लेस्बियन' क्यों घोषित कर दिया ? वो भी तब, जब कत्ल का कारण दोनों लड़कियों का लेस्बियन होना सामने नहीं आया है ? लड़कियों के चरित्र पर आरोप लगाकर उन्हें उस गुनाह की सजा क्यों दे दी गयी, जो केवल अनुमानों पर आधारित था ? उनके चरित्र की हत्या का जिम्मेदार कौन है ? शर्मनाक बात यह है कि मेरठ के एसएसपी ने यह कहकर कि ÷अन्जू एक मेल करेक्टर की तरह है', ने भी इशारों ही इशारों में प्रियंका और अन्जू को 'लेस्बियन÷ करार दे दिया।
मीडिया ने दोनों लड़कियों को लेस्बियन साबित करने के लिए जिस एंगिल से खबरें लगायी हैं, वह भी कम शर्मनाक नहीं है। मसलन, खबर लिखी गयी कि ÷दोनों लड़कियों को एक ही बैरक में नहीं रखकर अलब-अलग बैरकों में रखा गया।' एक खबर थी 'दोनों सहेलियों ने पूरी रात अपनी-अपनी बैरक से एक दूसरे को देखकर रात काटी। और सुबह दोनों एक दूसरे से गले लगकर खूब रोईं।÷ सवाल यह है कि क्या दो इंसानों के बीच केवल सैक्स का रिश्ता हो सकता है ? अन्जू ने मीडिया से यह भी तो कहा था कि प्रियंका से ही उसे पहली बार बहन और मां जैसा प्यार मिला है। इस बात को मीडिया ने क्यों भुला दिया ? दोनों लड़कियों ने कत्ल किए या नहीं इसका फैसला अब अदालत करेगी। लेकिन पुलिस और मीडिया ने बगैर किसी सबूत के दोनों लड़कियों पर जो तोहमत आयद कर दी है, उसका फैसला किस अदालत में होगा ? क्या अब वक्त नहीं आ गया है कि मीडिया अपने लिए भी एक आचार संहिता लागू करके करके संयम का परिचय दे। इलैक्ट्रॉनिक मीडिया तो टीआरपी के फेर में पड़कर अपनी विश्वसनीयता तो खोता ही जा रहा है। क्या अब प्रिंट मीडिया भी प्रसार संख्या की लड़ाई में अपनी मर्यादा लांघने लगा है ? मीडिया को यह नहीं भूलना चाहिए कि समाज के प्रति उसकी भी कुछ जिम्मेदारी है, जो उसने लगता है बाजार के हाथों गिरवी रख दी है।

170, मलियाना, मेरठ

Thursday, November 20, 2008

क्या हो गया है हमारे समाज को ?

सलीम अख्तर सिद्दीक़ी
मेरठ की प्रियंका चौधरी, जो 2005 में मिस मेरठ का खिताब ले चुकी है, पर अपनी दोस्त अंजु के साथ मिलकर अपने मां-बाप की हत्या का आरोप ल्रगा है। मीडिया में तरह-तरह की बातें हो रही हैं। सबसे दुखद पहलू यह है कि दोनों लड़कियों को लेस्बियन होने के आरोप का दंश भी झेलना पड़ रहा है। उनका गुनाह अपनी जगह, लेकिन बगैर किसी सबूत के दोनों को लेस्बियन घोषित करके मीडिया कौनसी परम्परा का निर्वाह कर रहा है। माना कि दोनों लेसिबयन हैं तो भी क्या मीडिया को उन्हें इस तरह से जलील करना चाहिए। आज समाज किस राह पर जा रहा है, प्रियंका चौधरी और अंजु इस बात का सबूत हैं। आजादी और समानता के नाम पर अश्लीलता का नंगा नाच हो रहा है। लगभग सभी समाजों, धर्मों तथा संस्कृतियों में लड़कियों से मर्यादा में रहने की अपेक्षा की जाती रही है। कुछ समाज और धर्म इज्जत के नाम पर लड़कियों पर बहुत कठोर अंकुश रखते हैं। पर्दा प्रथा इसी अंकुश के चलते प्रचलन में आया था। लड़कियों को पढ़ाने को भी कुछ लोग सही नहीं मानते। उनका तर्क यह होता है कि लड़कियों के बाहर निकलने से उनके भटकने का खतरा रहता है। जमाना बदला। सोच बदली। लड़कियों को शिक्षित करना जरूरी माने जाने लगा। लड़कियां बाहर की दुनिया से रूबरू हुईं। लेकिन उच्च शिक्षित और समाज का एक वर्ग, जो प्रगतिशील होने का दावा करता है, वह भी लड़कियों से आज भी यही अपेक्षा रखता है कि लड़कियां धार्मिक और सामाजिक मर्यादाओं का उल्लंघन न करें। जवान होती लड़की के मां-बाप दहेज की चिंता से ज्यादा इस चिंता से ग्रस्त हो जाते हैं कि लड़की के कदम न बहक जायें। जब अखबार किसी साइबर कैफे या किसी घर में कुछ लड़कों और लड़कियों के आपत्तिजनक अवस्था में पकड़े जाने की खबर छापता है तो जवान लड़कियों के अभिभावकों का दिल कांप उठता है। अवैध सम्बन्धों के चलते होने वाली वाली हत्याओं का ग्रॉफ बढ़ रहा है। दोस्ती के झांसे में आकर कुछ लड़कियां अपनी अश्लील सीडी बनवाकर खुद तो शर्मसार होती हैं, अपने अभिभवाकों को भी शर्मसार कर देती हैं। मीडिया में हर दिन आता है। कोई लड़की किसी के साथ फरार हो गयी। फरार हुई कोई लड़की बरामद हो गयी। बरामद हुई लड़की अदालत में अपने बालिग होने का प्रमाण देकर अभिभावकों को ठेंगा दिखाकर उन्हें शर्मसार करके प्रेमी को ही सब कुछ मान लेती है। क्योंकि कानून कहता है कि लड़की बालिग होते ही अपने जीवन की राह खुद चुन सकती है। एक बात जो बहुत चौंकाती है। मुस्लिम लड़कियां गैरमुस्लिमों के साथ फरार होने में गुरेज नहीं कर रही हैं तो हिन्दु लड़कियां मुस्लिम लड़कों के साथ। यानि धर्म और जाति का बंधन नहीं। यह महामारी उच्च शिक्षित और अशिक्षित लड़कियों में समान रूप से गांव देहात तक पैर पसार चुकी है। एक उच्च शिक्षित लड़की को निरे अनपढ़ लड़के के साथ प्यार की पींगें बढ़ाने में भी गुरेज नहीं है। यह सब देख और सुनकर अभिभावकों की नींदें उड़ी हुईं हैं। बड़े शहरों के कुछ अभिभावक तो अपनी लड़की की गतिविधियों पर नजर रखने के लिए प्राइवेट डिटेक्टिव तक का सहारा ले रहे हैं।
आखिर क्या हो गया है लड़कियों को ? क्या लड़कियों के लिए अभिभावकों की इज्जत से बढ़कर प्यार है ? दरअसल, मीडिया, खासकर टीवी चैनलों ने बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के साथ मिलकर एक ऐसा मायावी संसार रच दिया है, जो हमारी संस्कति और हकीकत से कोसों दूर है। फिल्मों और टीवी सीरियलों में दिखाया जा रहा है कि प्यार करना जरूरी है और जिसका कोई ब्वायफेंड या गर्लफेंड नहीं है वह 'भाई साहब' या 'बहनजी' है। वेलेंटाइन डे को राष्ट्रीय पर्व में तब्दील कर दिया गया है। इन्टरनेट पर पोर्न साइटें हजारों की संख्या में हैं, जिन पर किसी का कन्ट्रोल नहीं है। कई साइटें तो डेटिंग करने के तरीके तक बताती हैं। टीवी सीरियल के लिए कोई सेंसर नहीं है। कंडोम के विज्ञापन लघु सॉफ्ट पोर्न फिल्में लगती हैं। एक जमाना था, जब टीवी पर कंडोम का विज्ञापन आता था तो टीवी को किसी न्यूज चैनल पर कर दिया जाता था। आज न्यूज चैनल पर भी कोई मिक्का सिंह किसी राखी सावंत को जबरदस्ती किस करता नजर आता है तो शिल्पा शेट्टी किसी विदेशी अदाकार को सहमति से किस देती दिखायी देती है। किसी न्यूज चैनल पर सैक्स समस्याओं पर चर्चा होती नजर आती है। समाचार-पत्र और पत्रिकाओं में भी अश्लील सामाग्री को छापा जा रहा है। कभी कोई पत्रिका इसलिए घर ले जाने से बचा जाता है, क्योंकि उसे बच्चों के सामने नहीं पढ़ सकते। महिलाओं के लिए निकाली जा रही पत्रिकाएं तो कई कदम आगे दिखायी देती हैं, उनमें समस्या-समाधान के नाम पर खुलकर सैक्स परोसा जा रहा है। महिलाओं की कोई भी पत्रिका सैक्स स्टोरी के बगैर पूरी नहीं होती। जब कभी किसी सेमिनार आदि में कुछ लोग मीडिया में बढ़ती अश्लीलता की बात उठाते हैं तो मीडिया के लोग बहुत सहजता से इसे बाजार की मांग बताकर बात खत्म कर देते हैं।
हम भारतीय समाज हैं। हमारी कुछ धार्मिक और सामाजिक मान्यताएं हैं, जिन्हें निश्चित ही किसी के लिए छोड़ना आसान नहीं है। जिस समाज की लड़की परम्पराओं और मान्यताओं से बाहर जाती है, वह समाज अपने आप को अपमानित महसूस करता है। इसी अपमान के चलते अक्सर कई लड़कियों को अपनी जान गंवानी पड़ती है। ऐसी हत्याएं करने वालों को मीडिया प्यार का दुश्मन कहता है। ऐसी हत्याओं को किसी भी सूरत में जायज नहीं ठहराया जा सकता। लेकिन युवाओं को उकसाने के अपराध से मीडिया भी बरी नहीं हो सकता। हमारी सरकार को फिल्मों में सिगरेट पीते दिखाये जाने पर तो आपत्ति है, लेकिन फिल्मों में बढ़ती अश्लीलता सरकार को दिखायी नहीं देती। इससे पहले कि हालात बद से बदतर हों, सरकार को टीवी चैनलों पर सेंसरशिप लागू करनी ही चाहिए। मीडिया को खुद भी अपने बारे में कोई आचार संहिता बनानी चाहिए। मीडिया को सोचना होगा कि बाजार अपनी जगह, लेकिन उसका कुछ सामाजिक दायित्व भी हैं, जिसे उसने बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के हाथों गिरवी रख दिया है।

Thursday, November 13, 2008

फौज को साम्प्रदाकिता के कीड़े से बचाएं

सलीम अख्तर सिद्दीक़ी
मालेगांव बम धमाकों में साध्वी प्रज्ञा सिंह ठाकुर की गिरफतारी के बाद, इस कांड में नये-नये खुलासों का सिलसिला अभी थमा नहीं है। प्रत्येक दिन होने वाला खुलासा चिंताजनक ही नहीं खतरनाक भी है। 11 नवम्बर को कानपुर के संत अमृतानंद को हिरासत में लिया गया है। बम धमाकों की साजिश में मेजर और कर्नल रैंक के फौजी अफसरों की कथित संलिप्तता सामने आने के बाद तो सिहरन पैदा होती है। साम्प्रदायिक दंगों के दौरान सिविल पुलिस और प्रांतीय सशस्त्र बलों पर एक समुदाय पर ज्यादती करने के आरोप लगते रहे हैं। इन आरोपों के चलते ही साम्प्रदायिक दंगों में प्रांतीय सशस्त्र बलों के स्थान पर फौज को तैनात करने की मांग की जाती रही है। फौज ने प्रांतीय सशस्त्र बलों से बाहर हुऐ साम्प्रदायिक दंगों पर काबू भी पाया है। भारतीय फौज का चरित्र सैक्यूलर रहा है। चन्द फौजी अफसरों के मालेगांव धमाकों में शामिल होने के आरोपों के बाद भी यह नहीं कहा जा सकता कि पूरी भारतीय फौज में साम्प्रदायिकता का कीड़ा लग गया है। लेकिन फौज के जितने भी हिस्से में साम्प्रदायिकता का कीड़ा लगा है, उस हिस्से की पहचान करके, उसे निकालना भी जरुरी है। यह पता चलना ही चाहिए कि सैक्यूलर फौज में साम्प्रदायिकता का कीड़ा कौन लगा रहा है ? फौजियों को बरगलाकर बम धमाकों में शरीक करने में उन साम्प्रदायिक हिन्दू संगठनों का बराबर नाम आ रहा है, जो अपने को राष्ट्रवादी कहते नहीं थकते। आतंकवाद को मुसलमानों से जोड़कर बड़ी-बड़ी बातें करने वाले संघ परिवार के नेता अब सफाई देते घूम रहे हैं कि साध्वी प्रज्ञा बेकसूर है। गुजरात दंगों में नरेन्द्र मोदी की भूमिका की आलोचना करने पर मानवाधिकार आयोग को ÷आतंकवादी अधिकार आयोग' बताने वाले संघ परिवार के नेता साध्वी के मामले को मानवाधिकार आयोग और महिला आयोग में ले जाने की बात कर रहे हैं। चलिए संघ परिवार के नेताओं को यह तो लगा कि मानवाधिकार आयोग आतंकवादी अधिकार आयोग नहीं है।
भारत के संविधान में प्रत्येक नागरिक को अपने उपर लगे आरोप का बचाव करने का पूरा अधिकार है। लेकिन जब किसी बम धमाके में मुस्लिम आतंकवादी पकड़े जाते हैं तो संविधान की यह कहकर धज्जियां उड़ाई जाती रही हैं कि आतंकवादियों को अपना बचाव करने का अधिकार नहीं है। उन्हें कानूनी सहायता नहीं मिलनी चाहिए। देश की कई ÷बार एसोसिएशन' यह ऐलान कर चुकी हैं कि आतंकवादियों का केस कोई भी वकील नहीं लड़ेगा। यहां तक कहा गया कि आतंकवादियों को बिना ट्रायल के ही सरेआम फांसी दे देनी चाहिए। बटला हाउस एनकाउंटर की न्यायिक जांच की मांग तथा आतंकवादी होने के आरोप में पकड़े गये जामिया के छात्रों की कानूनी मदद के लिए जामिया मिलिया इस्लामिया के कुलपति मुशीरुल हसन के आगे आने पर हाय तौबा मचाने वाला संघ परिवार, साध्वी और उसके साथियों की मदद की बातें क्यों कर रहा है। क्यों कानूनी मदद के लिए बैंकों में एकाउंट खोले जा रहे हैं। क्यों अब बाल ठाकरे यह कह रहे हैं कि एटीएस साध्वी मामले में बाज आए, वरना खून-खराबा हो जायेगा। यह सब लिखने का मतलब यह नहीं है कि साध्वी और उसके साथियों को कानूनी मदद नहीं मिलनी चाहिए या उन्हें अपना बचाव करने का अधिकार नहीं है। गिला इस बात का है कि संघ परिवार आतंकवाद जैसी राष्ट्ररीय और गम्भीर समस्या पर दोहरे मापदंड क्यों अपना रहा है ? क्यों वह आतंकवाद का वर्गीकरण करके समस्या को उलझा रहा है ? क्यों आतंकवाद का भी साम्प्रदायिकरण कर रहा है ?
मैंने एक लेख में यह शंका जाहिर की थी कि कहीं ऐसा तो नहीं सिमी, इंडियन मुजाहिदीन और हुजी की के साथ ही कोई और भी संगठन बम धमाकों को अंजाम नहीं दे रहा है। यह शंका इसलिए थी कि पाकिस्तान जाने वाली समझौता एक्सप्रेस, हैदराबाद की मक्का मस्जिद, मालेगांव की एक मस्जिद और अजमेर की दरगाह और अन्य कई शहरों में हुऐ बम धमाकों में सौ से अधिक लोग मारे गए थे। मरने वाले सभी मुसलमान थे। मालेगांव बम धमाकों के खुलासे के बाद शंका सही साबित हुई। अब एटीएस कर्नल पुरोहित पर समझौता एक्सप्रेस में हुऐ बम धमाकों में शामिल होने का शक जाहिर कर रही है। 11 नवम्बर को केरल के चेरुवनचेरी में बम बनाते समय हुऐ धमाके में आरएसएस के दो कार्यकताओं की मौत की भी जांच जरुरी है। महाराष्ट्र सहित सभी राज्यों की एटीएस को मुशीरुल हसनों की मांगों, बाल ठाकरों की धमकियों तथा सभी कथित सेक्यूलर और सामप्रदायिक राजनैतिक दलों की बयानबाजियों की परवाह नहीं करते हुऐ जांच को निष्पक्षता से आगे बढ़ाते रहते रहना चाहिए। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि आतंकवादी ने इस्लाम का चेहरा लगा रखा है या हिन्दुत्ववादी का। आतंकवादियों की पहचान होना जरुरी है। यदि आतंकवादियों की सही-सही पहचान हो जायेगी तो आतंकवाद पर काबू पाने में आसानी होगी। मुस्लिम उलेमा समय-समय पर आतंकवाद को कतई गैरइस्लामी बता कर इसे जेहाद नहीं फसाद बता चुके हैं। इसी प्रकार अब वक्त आ गया है कि हिन्दू संत भी आगे आकर संघी मार्का हिन्दुत्व का विरोध करें।
170 मलियाना, मेरठ।